SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 513
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्तेनप्रयोग] ११८०, जैन-लक्षणावली इस्तेयानन्द ६-४६)। श्वे. ७-१०) । २. प्रमत्तयोगाददत्तादानं यत् तत्स्ते१ जिसके आश्रय से चोरी करने वाले को स्वयं ही यम् । (स. सि. ७-१५)। ३. स्तेयबद्धया परैरउसमें उद्यत करता है, अन्य से प्रेरणा कराता है. दतस्य परिगृहीतस्य वा तृणादेव्यजातस्यादानं अथवा चोरी में प्रवृत्त हुए चोर की अनुमोदना स्तेयम् । (त. भा. ७-१०) । ४. आदानम् ग्रहणम्, करता है उसे स्तेनप्रयोग कहा जाता है। ३ चोरों ___ अदत्तस्याऽऽदानम् अदत्तादानं स्तेयमित्युच्यते । (त. को 'तुम चोरी करो' इस प्रकार चोरी के लिए वा. ७-१५); Xxx प्रमत्तस्य सत्यसति च प्रेरित करना अथवा अनुमोदन करना, इसका नाम परकीय द्रव्यादाने त्रेधाऽपि तदादानाद्यर्थोद्यतत्वात् स्तेनप्रयोग है। अथवा परधनहरण के जो कैंची व स्तेयम् । (त. वा. ७, १५, ६)। ५. परपरिगृही. घर्घरक प्रादि उपकरण हैं उनके देने प्रादि को स्तेन. तस्य स्वीकरणमाकान्त्या चौर्येण शास्त्र प्रतिषिद्धस्य प्रयोग जानना चाहिए। यह प्रचौर्याणुव्रत का एक वा स्तेयम् । (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ७-१)। अतिचार है। ६. स्तेयवुद्धया कषायादिप्रमादकलुषितधिया करणस्तेनानीतादान-देखो तदानीतादान व तदाहृता- भूतया कर्तुः परिणन्तुराददानस्य स्तेयमिति । (त. दान । भा. सिद्ध. वृ. ७-१०)। ७. प्रमत्तयोगतो यत्स्यास्तेनानुज्ञा-देखो स्तेनप्रयोग । स्तेनाश्चौरास्तेषा- ददत्तार्थपरिग्रहः। प्रत्येयं तत्खलु स्तेयं सर्व संक्षेपमनुज्ञा 'हरत यूयम्' इति हरण क्रियायां प्रेरणा, योगतः ।। (त. सा. ४-७६) । ८. अवितीर्णस्य अथवा स्तेनोपकरणानि कुशिका-कर्तरिका-धरिका- ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमत्तयोगाद्यत् । तत्प्रत्येयं स्तेयं सैव दीनि तेषामर्पणं विक्रयण वा स्तेनानुज्ञा। (योगशा. च हिंसा वधस्य हेतुत्वात् ।। (पु. सि. १०२) । स्वो. विव. ३-६२)। ६. परैरदत्तस्यादाने मन: स्तेयं xxx। (प्राचा. 'तुम चोरी करो' इस प्रकार से चोरी की क्रिया में सा. ५-४२)। १०. यल्लोकः स्वीकृतं सर्वलोकाप्रेरित करने का नाम स्तेनानुज्ञा है । अथवा कुशिका, प्रवृत्तिगोचरः तद्वस्तु प्रदत्तम्, तस्य ग्रहणं जिघक्षा कैंची और घरिक प्रादि चोरी के उपकरणों का वा ग्रहणोपायचिंतनं च स्ते यमुच्यते । (त. वृ. श्रुत. देना, इसे स्तेनानुज्ञा कहा जाता है। यह प्रचौर्याण- ७-१५)। व्रत का एक अतिचार है। १ विना दी हई किसी वस्तु को ग्रहण करना, स्तेनानुबन्धी-देखो चौर्यानन्द । तेण। णुबन्धी णाम इसका नाम स्तेय है। २ कषाय विशिष्ट प्रात्मपरिजो अहो या राईय परदब्वहरणपसत्तो जीवघाती य णाम के योग से जो विना की हुई वस्तु को ग्रहण एस तेणाणुबंधी। (दशव. चू पृ. ३१)। किया जाता है, इसे स्तेय कहते हैं। ३ दूसरों के दिन-रात प्राििहंसा के कारणभूत दूसरे के द्रव्य के द्वारा नहीं दिये गये अथवा दूसरों के द्वारा गृहीत हरण में जो चित्त संलग्न रहता है, इसे स्तेनानुबन्धी तृण आदि द्रव्यसमूह को जो चोरी के अभिप्राय रौद्रध्यान कहा जाता है। से ग्रहण किया जाता है, यह स्तेय कहलाता है। स्तेनितदोष-१. स्ते नितं चौरबुद्धया यथा गुर्वा- स्तेयत्यागवत - देखो प्रचौर्याणुव्रत । ग्रामादौ वस्तु दयो न जानन्ति वन्दनादिकमपवरकाभ्यन्तरं प्रविश्य चान्यस्य पतितं विस्मृतं धृतम् । गृह्यते यन्न लोभावा परेषां वन्दनां चोरयित्वा यः करोति वन्दनादिकं त्तत्स्तेय त्यागमणुव्रतम् ।। (धर्मसं. बा. ६-५४)। तस्य स्ते नितदोषः । (मूला. वृ. ७-१०८) । २. जो दूसरों को वस्तु ग्राम प्रादि में गिर गई है, स्याद्वन्दने चोरिकया गदि: स्ते नितं मलः। (अन. विस्मृत है, अथवा रखी गई है उसे लोभ के वशीभत ध. ८-१०४)। होकर ग्रहण न करना; यह स्तेयत्याग अणुव्रत कह१ गरु प्रादि नहीं जानते, इस प्रकार चोरी की लाता है। यह प्रचौर्याणुव्रत का नामान्तर है। बति से कोठरी के भीतर प्रविष्ट होकर अथवा स्तेयानन्द-देखो स्तेनानुबन्धी। १. प्रतीक्षया दसरों की वन्दना को चुराकर जो वन्दना आदि प्रमादस्य परस्वहरणं प्रति । प्रसह्य हरणं ध्यानं करता है उसके वन्दना का स्तनितदोष होता है। स्तेयानन्दमुदीरितम् ॥ (ह. पु. ५६-२४) । २. स्तेय – १. अदत्तादानं स्तेयम् । (त. सू. दि. ७.१५, स्तेयान दः परद्रव्यहरणे स्मृतियोजनम् । (म. पु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy