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________________ सेतुक्षेत्र ११७६, जैन-लक्षणावली [सौघ हड्डियां चमड़ा, स्नायु और मांस से सम्बद्ध हों भोगानर्थक्यमित्यर्थः । (सा. घ. स्वो. टी. ५-१२)। उसका नाम सपाटिकासंहनन है। तत्त्वार्थवातिक भोग-उपभोगरूप सेव्य पदार्थ का जितना प्रयोजन में उसे असंप्राप्तासपाटिकासंहनन कहा गया है। हो उससे अधिक के करने का नाम से उसके लक्षण में वहां कहा गया है कि जिस संहनन है। यह अनर्थदण्डव्रत का एक अतिचार है। दूसरे में हडियां भीतर परस्पर में सन्धि को प्राप्त नहीं शब्द से उसे भोगोपभोगानर्थक्य कहना चाहिए। होती और बाहिर सिर, स्नायु और मांस से संघ- सोपक्रमाय - देखो उपक्रम । उपक्रम्यत इति उपटित रहती हैं उसे असंप्राप्तासपाटिका संहनन कहते क्रम: विष-वेदना-रक्तक्षय-भय-संक्लेश-शस्त्रघातोच्छहैं (८, ११,६)। वासनिःश्वासनिरोधरायुषो घातः, सह उपक्रमेण वर्तत सेतक्षेत्र-तत्र सेतुक्षेत्रं यदरघट्टादिजलेन सिच्यते। इति सोपक्रमायुः । मला. व. १२-८३)। (योगशा. स्वो. विव. ३-६५; सा. ध. स्वो. टी. विष, वेदना, रक्तक्षय, भय, सक्लेश, शस्त्रघात और ४-६४)। उच्छवास-निःश्वास का निरोध; इनके द्वारा जो प्राय जो खेत प्ररहट प्रादि के जल से सींचा जाता है उसे का घात होता है उसका नाम उपक्रम है। जो प्राव सेतुक्षेत्र कहते हैं। इस उपक्रम से सहित होती है उसे सोपक्रमायु कहा सेनापति--सेनापतिः नरपतिनिरूपितोष्ट्र-हस्त्यश्व- जाता है । रथ-पदातिसमुदायलक्षणायाः सेनायाः प्रभुः । (अनुः सौम्य-लिङ्गेनात्मानं सूचयति सूच्यतेऽसौ सूच्ययो. हरि. व. पृ. १६)। तेऽनेन सूचनमात्रं वा सूक्ष्मः, सूक्ष्मस्य भावः कर्म वा राजा के द्वारा प्रदर्शित ऊंट, हाथी, घोड़ा, रथ और सौक्ष्म्यम् । (त. वा. ५-२४) । पादचारियों के समुदायरूप सेना का जो स्वामी जिस लिग के द्वारा अपने को सूचित करता है होता है उसे सेनापति कहा जाता है। (कर्ता), जो सूचित किया जाता है (कर्म), जिसके सेवार्तसंहनन-यत्र पुनः परस्परपर्यन्तमात्र- द्वारा सूचित किया जाता है (करण), अथवा संस्पर्शलक्षणां सेवामागतानि अस्थीनि नित्यमेव । सूचनामात्र (भाव) का नाम सूक्ष्म है, सूक्ष्म का जो स्नेहाभ्यंगादिरूपां परिशीलनामाकांक्षति तत्सेवातं ___ स्वभाव अथवा कर्म है उसे सोक्षम्य कहा जाता है। सहननं (एतनिबन्धनं संहनननामापि) । (प्रज्ञाप. सौख्य–कि सौख्यं सर्वसंगविरति । (प्रश्नो. र. मलय. वृ. २६३, पृ. ४७२)। जिस संहनन में परस्पर पर्यन्त मात्र के स्पर्शरूप सुख का वास्तविक स्वरूप समस्त परिग्रह का परिसेवा को प्राप्त हड्डियां सदा चिकनाहट के मर्दनरूप त्याग है। परिशीलना की इच्छा किया करती हैं उसे सेवार्त- सौजन्य--१. तत्सौजन्यं यत्र नास्ति परोद्वेगः । संहनन कहते हैं । इसके कारणभूत नामकर्म को भी (नीतिवा. २७-५४, पृ. २६१) । २. हेत्वन्तरकृतोसेवार्तसंहनन कहा जाता है। पेक्षे गुण-दोष-प्रवर्तिते । स्यातामादानहाने चेत्तद्धि सेवीका-सेवीकातो णाम संपय-समये पदेसग्गं सौजन्यलक्षणम् ॥ (क्षत्रच ५-१६)। ३. तथा च अणदिन्नं जास ट्रितिसु उदीरणातो पाणेउं उदयसमये वादरायण ---यस्य कृत्येन कृत्स्नेन सानन्द: स्याज्जदिज्जति तातो ट्रितितो सेवीकातो भन्नई। (कर्मप्र. नोऽखिलः। सौजन्यं तस्य तज्ज्ञेयं विपरीतमतोच. उदय. ४)। ऽन्यथा ॥ (नीतिवा. टी. २७--५४)। इस समय जो प्रदेशाग्र उदय को नहीं प्राप्त है जिस कृत्य में किसी दूसरे को उद्वेग नहीं होता उसको उदीरणा के वश लाकर जिन स्थितियों में उसका नाम सौजन्य है। २ अन्य कारणों की उपेक्षा दिया जाता है उन स्थितियों को सेवीका कहा करके केवल गुण के प्राश्रय से जो वस्तु को ग्रहण जाता है। किया जाता है और दोष के निमित्त से जो उसे छोड़ा सेव्यार्थाधिकता-देखो उपभोग-परिभोगानर्थक्य और उपभोगाधिकत्व । सेव्यस्य भोगोपभोगलक्षणस्य सौध-धौत-पादाम्भसा सिक्तं साधनां सौघमच्यते । जनको यावानर्थस्ततोऽधिकस्य तस्य करणं भोगोप- (अमित. श्रा.९-२३)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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