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________________ सूक्ष्मनाम] ११७०, जैन-लक्षणावली [सूक्ष्मसाम्पराय करता है वह सूक्ष्म नामक पालोचनादोष का भागी परिवर्तन करके मध्याह्न में या अपराह्न में देने पर होता है। उक्त दोष होता है । वह होनाधिकता के अनुसार सूक्ष्मनाम -१. सूक्ष्मशरीरनिर्वतकं सूक्ष्मनाम। दो प्रकार का है। (स. सि. ८-११); त. भा. ८-१२; त. श्लो. सूक्ष्मबकुश - किञ्चित्प्रमादी सूक्ष्मवकुशः । (त. ८-११; गो. क. जी. प्र. ३३)। २ सूक्षमशरीर- भा. सिद्ध. वृ. ६-४६)। निर्वतकं सूक्ष्मनाम । यदुदयादन्यजीवानुपग्रहोपघा- किञ्चित् प्रमाद वाला मुनि सूक्ष्मबकुश होता है । तायोग्यसूक्ष्मशरीरनिर्वृत्तिर्भवति तत्सूक्ष्मनाम । (त. सूक्ष्मबादर-देखो सूक्ष्मस्थूल । वा. ८, ११, २६)। ३. सूक्ष्मं श्लक्ष्णं अदृश्यं सूक्ष्म बुद्धि---मूक्ष्मा अत्यन्त दुःखावबोधसूक्ष्म-व्यवनियतमेव यस्य कर्मण उदयाद्भवति शरीरं पृथिव्या. हितार्थ परिच्छेदसमर्था । (प्राव. नि. हरि. वृ. दीनां केषांचिदेव तत् सूक्ष्मशरीरनाम । (त. भा. ६३७) । हरि. व सिद्ध. वृ. ८-१२) । ४. सूक्ष्मनाम यदुः जो बुद्धि प्रतिशय दुरवबोध सूक्ष्म और व्यवहित दयात्सूक्ष्मो भवति अत्यन्तश्लक्षणः, अतीन्द्रिय इत्य- पदार्थों के जानने में समर्थ होती है उसे सूक्ष्मवद्धि र्थः । (श्रा. प्र. टी. २२) । ५. सौम्य निर्वर्तक कर्म कहते हैं। सूक्ष्मम् । (धव. पु. १, पृ. २५०); जस्स कम्मस्स सूक्ष्म लोभ - पूर्वापूर्वाणि विद्यन्ते सर्घकानि उदएण जीवो सुहुमत्तं पडिवजदि तस्स कम्भस्स विशेषतः । संज्वलस्यानुभागस्य यानि तेभ्यो ब्यपेत्य सुहुमिदि सण्णा। (धव. पु. ६, पृ. ६२) । ६. यस्य य: ।। अनन्तगुणहीनानुभागो लोभे उपवस्थितः । कर्मण उदयेन सूक्ष्मेषत्वद्यते जीवस्तत्सूक्ष्मशरीर- अणीयसि यथार्थाख्यः सूक्ष्मलोभः स संमतः ॥ (पंचनिवर्तकम् (सूक्ष्मनाम) । (मूला. बृ. १२-१६५)। सं. अमित. १, ४१-४२) । ७. सूक्ष्मनाम यदुदयाद् बहूनामपि समुदितानां जन्तु. संज्वलन सम्बन्धी अनुभाग के जो पूर्व और अपूर्व शरीराणां चक्षुर्ग्राह्यता न भवति । (प्रज्ञाप. मलय. स्पर्धक हैं उनसे हट करके जो अनन्तगुणा हीन अनुवृ. २६३, पृ. ४७४) । ८. सूक्ष्मसंज्ञ परानुपघातक- भाग अतिशय अल्प लोभ में अवस्थित है उसे सूक्ष्म सूक्ष्मशरीरनिवर्तकं नामकर्म । (भ. प्रा. मूला. लोभ माना गया है। २०६५) । ६. यदुदयेन सूक्ष्मशरीरं भवति तत्सूक्ष्म- सूक्ष्मसम्पराय - देखो सूक्ष्मसाम्पराय । नाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११)। सूक्ष्मसाम्पराय- १. अतिसूक्ष्मकषायत्वात् सूक्ष्म१ सूक्ष्म शरीर की रचना करने वाले कर्म को साम्परायचारित्रम् । (स. सि. ६-१८)। २. लोसूक्ष्मनामकर्म कहा जाता है। ३ जिस कर्म के उदय भाण वेयंतो जो खलु उबसामग्रो व खवग्रो वा। से किन्हीं पृथ्वी प्रादि जीवों का इलक्षण या अदृश्य सो सुहमसंपराग्रो अहखाया ऊणग्रो किंचि ॥ नियत ही शरीर होता है उसे सूक्ष्म नामकर्म कहते (भगवती २५, ७, ६, पृ. २६२; प्राव. नि. ११७)। हैं। ७ जिसके उदय से समदित हुए बहुत भी जीव- ३. अणुलोह वेयंतो जीपो उवसामगो व खवगो वा। शरीर चक्ष इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने के योग्य सो सुहुमसंपरानो जहखादेणणो लिचि ।। (प्रा. नहीं होते उसका नाम सूक्ष्म नामकर्म है। पंचसं. १-१३२, गो. जी. ६०)। ४. सुहमहँ सूक्ष्मपुलाक ---किञ्चित्प्रमादात् सूक्ष्मपुला यः ।। लोहहँ जो विलउ जो सुहमु वि परिणामु । सो (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-४६) । सृहुमु वि चारित्त मुणि सो सासयसुहधाम ।। (योगकुछ थोड़े से प्रमाद से युक्त मुनि सूक्ष्मपुलाक होता । सार १०३) । ५. अतिसूक्ष्मकषायत्वात् सूक्ष्महै । यह पांच पुलाकभेदों में अन्तिम है । साम्परायम् । (त. वा. ६, १८, ६); सूक्ष्म-स्थूलसक्ष्मप्राभतदोष ---- पुधपर-मझवेलं परियत्तं सत्त्ववधपरिहाराप्रमत्तत्वात् (चा. सा. 'हारप्रवत्तदुविह सुहुमं च । (मूला. ६-१४) । स्वात्') अनुपहतोत्साहस्य अखण्डितक्रियाविशेषस्य पूर्वाह्न, अपराह्न और मध्यम वेला में परिवर्तन कर सम्यग्दर्शन ज्ञानमहामारुतसंधुक्षितप्रशस्ताध्यवसायादेने पर सूक्ष्म प्राभतदोष होता है। अभिप्राय यह है ग्निशिखोपश्लष्टकमन्धनस्य ध्यानविशेषविशिखीकि यदि पूर्वाह्न में देने का स्थिर किया है तो उसमें कृतकषाय-विषांकुरस्थ अपचया भिमुखालीनस्तोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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