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________________ संयोगगति] ११३०, जैन-लक्षणावली [संरक्षणानन्द संयोगति-'जलधर-रथ-मुशलादीनां वायु-वाजि- संयोजना । (स्थानां. अभय. व. २६३)। ४. तत्र हस्त्या[स्ता] दीनां संयोगनिमित्ता संयोगगति: । लोभाद् द्रव्यस्य मण्डकादेव्यान्तरेण खण्ड-घृतादिना बादल, रथ और मशल प्रादि की जो क्रम से वायु, वसतेर्बहिरन्तर्वा योजनं संयोजना । (योगशा. घोड़ा और हाथ आदि के संयोग के निमित्त से स्वो. विव. १-३८, पृ. १३८)। ५. मिथो विरुद्धं गति होती है उसे संयोगगति कहते हैं। संयोज्य दोषः संयोजनाह्वयः ॥ (अन. ध. ५-३७)। संयोगद्रव्य-तत्थ संजोयदव्वं णाम पुध पुध पसिद्धाणं ६. स्वादनिमित्तं यत्संयोजनं शीते उष्णं उष्णे शीतदवाणं संजोगेण णिप्पण्णं । (धव. पु. १, पृ. १८)। मित्यादिमेलनं तदनेकरोगाणामसंयमस्य च कारणम् । पृथक पथक प्रसिद्ध द्रव्यों के संयोग से जो द्रव्य (भावप्रा. टी. ९९) निष्पन्न होता है उसे संयोगद्रव्य कहते हैं। १ विरुद्ध भोजग-पान के मिलाने पर संयोजनादोष संयोगवाद- १. संयोगमेवेह वदन्ति तज्ज्ञा न होता है। जैसे-उष्ण भोजन के ाथ शीतल पान ह्येक चक्रेण रथः प्रयाति । अन्धश्च पगुश्च वने का अथवा शीतल भोजन के साथ उष्ण पान का प्रविष्टौ तौ संप्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ ।। (त. वा. संयोग । ऐसा भोजन साधु के लिए अग्राह्य होता १, १, ४६, पृ. १४ उद्.)। २. एकेण चक्केण है। रहो ण यादि संयोगमेवेति वदंति तण्णा। अंधो य संयोजनाधिकरणिकी- १. यत्पूर्व निर्वतितयोः पंगू य वणं पविट्ठा ते संपजुत्ता णयरं पविट्ठा ।। खड्ग-तन्मुष्ट्यादिकयोरर्थयोः संयोजनं क्रियते सा (अंगप. २-३२, पृ. २८२)। संयोजनाधिकरिणिकी। (स्थानां. अभय. बृ. ६०)। १ एक पहिए से कभी रथ नहीं चलता है, वन में २. संयोजनं पूर्व निर्वतितानां हल-गर-विष-कूटप्रविष्ट हुए अन्धे व लंगड़े दोनों परस्पर में संयुक्त यंत्राद्यंगानां मीलनम्, तदेव संसारहेतुत्वादधिकरहोकर नगर में जा पहुंचते हैं। इससे सिद्ध है कि णिकी संयोजनाधिकरणिकी, इयं हलाद्यंगानि पूर्वनिसंयोग ही कार्यकारी है, इस प्रकार जो कथन र्वतितानि संयोजयितुर्भवति । (प्रज्ञाप. मलय. व. किया जाता है, इसका नाम संयोगवाद है। २७६, पृ. ४३६)। संयोगाक्षर-बझगेगत्थविसयविण्णाणप्पत्तिक्खमो २ पूर्व में रचे गये हल, गर, विष, कट और अक्खरकलामो संजोगक्खरं णाम। (धव. पु. यंत्र आदि के अवयवों के मिलाने को संयोजनाधि१३, पृ. २५६)। करिणिकी क्रिया कहा जाता है। जो अक्षर समूहबाह्य एक एक पदार्थ विषयक संयोजनासत्य-१. धूप-चूर्ण-वासानुलेपनप्रघर्षादिषु विज्ञान की उत्पत्ति में समर्थ है उसे संयोगाक्षर पद्म-मकर-हंस-सर्वतोभद्र-क्रौञ्चव्यूहादिषु वा सचेकहते हैं। तनेतरद्रव्याणां यथाभागविधिसन्निवेशाविर्भावक संयोजना (अनन्तानुबन्धी)- १. कर्मणा तत्फ- यद्वचस्तत्संयोजनासत्यम् । (त. वा. १, २०, १२; लभतेन संसारेण वा संयोजयन्तीति संयोजनाः। धव. पु. १, पृ. ११८)। २. चेतनाचेतनद्रव्यसन्नि(प्राव. नि. हरि. वृ.१०८, पृ.७७)। २. संयोज्यन्ते वेशाविभागकृत् । वचः संयोजनासत्यं क्रौंचव्यूहादिसम्बन्ध्यन्तेऽनन्तसंख्य वैजन्तवो यस्ते संयोजनाः। गोचरम् ॥ (ह. पु. १०-१०३) । ३. सेनौषधादि(प्रज्ञाप. मलय. व. २६३, पृ. ४६८)। विन्यास विभागक्रमवर्णना। वाणी संयोजना चक्रकर्म अथवा उसके फलभूत संसार से जो संयुक्त व्यूहैलाद्यादि वाग्यथा ॥ (प्राचा. सा. ५-३४) । कराते हैं उन्हें संयोजना कषाय कहते हैं । अनन्तान १ धूप, चूर्ण, सुगन्धित लेपन और प्रघर्ष प्रादि में बन्धी क्रोधादिकों का यह नामान्तर है। अथवा पद्म, मकर, हंस, सर्वतोभद्र, क्रौञ्च और संयोजना (भोजनदोष)-१. संयोजणा य व्यूह प्रादि में चेतन-प्रचेतन द्रव्यों के भागविधि के दोसो जो संजोएदि भत्त-पाणं तु। (मला. ६ ५७)। अनसार सन्निवेश आदि के प्रगट करने वाले बचन २. स्वादार्थमन्न-पानानां यत्संयोजनकर्म तत् । प्रोक्तं को संयोजनासत्य कहते हैं। संयोजनं नानारोगाऽसंयमकारणम् ।। (प्राचा. सा. संरक्षणानन्द-देखो परिग्रहानन्दी व विषयानन्दरी८-२४) । ३. संयोजनम् एकजातीयातिचारमीलनं द्रध्यान । १. सद्दाइविप्सयसाहणधणसारक्खणपरायण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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