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________________ संघातश्रुत] ११२२, जैन-लक्षणावली [संघावर्णवाद ८-११) । ६. संयोगेनात्मना गृहीतानां पुद्गलानां णाणेत्ति । (धव. पु. ६, पृ. २३-२४); संघादयस्य कर्मण उदयादौदारिक [कादि] तनुविशेषरचना सुदणाणस्सुवरि एगक्खरे वडिढदे संघादसमाससुदभवति तत् सङ्घातनामकर्म। (त. भा. सिद्ध. वृ. णाण होदि । xxx एवमेगेगक्खरवढिकमेण ८-१२)। १०. तथा संधात्यन्ते पिण्डीक्रियन्ते संघादसमाससुदणाणं वड्ढमाण गच्छदि जाव एगऔदारिकादिपुद्गला येन तत्संधातम्, तच्च तन्नाम क्खरेणणगदिमग्गणे त्ति । (धव. पु. १३, पृ. च संघातनाम । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३, पृ. २६९) । ४७०)। ११. यन्निमित्ताच्छरीराणां छिद्ररहित- संघातश्रतज्ञान के ऊपर एक अक्षर के बढ़ने पर परस्परप्रदेशप्रवेशादेकत्वभवनं भवति स संघातः। संघातसमासश्रुतज्ञान होता है। यह संघातसमास(त. वृत्ति श्रुत. ८-११)। श्रतज्ञान एक एक अक्षर की वृद्धि के क्रम से बढ़ता १ जिसके उदय से प्रौदारिक प्रादि शरीरों के प्रदेशों हुमा एक अक्षर से कम गतिमार्गणा तक चला में अनप्रविष्ट होकर परस्पर छिद्र रहित एकरूपता जाता है। होती है उसे संघातनामकर्म कहते हैं। २ जो बन्ध संघातसमासावरणीयकर्म--संघादसमासणाणस्स को प्राप्त हुए भी स्कन्धों में प्रचयदिशेष से विशिष्ट जमावारयं कम्म तं सधादसमासावरणीयं । (धव. संधात को उत्पन्न किया करता है उसे संघातनाम. प्र. १३. प. २७८)। कर्म कहा जाता है। वह विशिष्ट संघात उनमें दारु- संघातसमास श्रतज्ञान के प्रावारक कर्म को संघातपिण्ड, मत्पिण्ड और लोहपिण्ड के समान होता है। समासावरणीय कहते हैं। संघातश्रुत-१. संखेज्जेहि पदेहि संघानो णाम संधातित अपरिशाटिरूप एकांगिक सँस्तरसुदणाणं होदि । (धव. पु. ६, पृ. २३); एदस्स संधातितो द्वयादिफलकसंघातात्मकः। (व्यव. भा. (पदसमाससुदणाणस्स) उवरि एगेगक्खरे वढिदे मलय. वृ. ८-८)। संघादणामसूदणाणं होदि । होतं पि संखेज्जाणि दो प्रादि फलकों के संघातरूप संस्तर को संघातित पदाणि घेत्तण एगसंघादसूदणाणं होदि । (धव. पु. अपरिशाटिरूप एकांगिक संस्तर कहते हैं । १३, पृ. २६७)। २. एयपदादो उरि एगेगेणक्ख संघातिम-कट्टिमजिणभवण-धर-पायार थूहादिदव्वं रेण वडढंतो। संखेज्जसहस्सपदे उड्ढे संधादणाम सुदं ॥ (गो. जी. ३३७)। ३. चरमस्य पदसमास कट्ठिट्ठय-पत्थरादिसंधादणकिरियाणिप्पण्णं संधादिम ज्ञानोत्कृष्टविकल्पस्योपरि एकस्मिन्नक्षरे वद्ध सति ___णाम । (धव. पु. ६, पृ. २७३)। संघातश्रतज्ञानं भवति । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. काष्ठ, इंट और पत्थर पानि को संघातन (मिलाना) ३३७)। रूप क्रिया से उत्पन्न कृत्रिम जिनालय, गृह, प्राकार १ संख्यात पदों से संघात नामक तज्ञान होता है। और स्तूप प्रादि द्रव्य को संघातिम कहा जाता है। २ एक पद के ऊपर एक-एक अक्षर की वृद्धि के संघावर्णवाद- १. शूद्रत्त्वाशुचित्वाद्याविर्भावना क्रम से संख्यात हजार पदों के बढ़ जाने पर संधात संघावर्णवाद । (स. सि. ६-१३)। २. शूद्रत्वानामक श्रुतज्ञान होता है। शचित्वाद्याविर्भावनं संघ । एते श्रमणाः शूद्राः संघातश्रुतावरणीय- संधादणाणस्स जमावरयं अस्नानमलदिग्धाङ्गा अशुचयो दिगम्बरा निरपत्रपा कम्मं तं संघादणाणावरणीयं । (धव. पु. १३, पृ. इहैवेति दुःखमनुभवन्ति परलोके कुतश्च सुखिन २७८)। इत्यादिवचनं संघेऽवर्णवादः । (त. वा. ६, १३, सघातश्रुतज्ञान का प्रावरण करने वाले कर्म को १०)। संघातश्रुतज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। २ ये साधु शूद्र हैं, इनका शरीर स्नान के विना संघातसमासश्रुतज्ञान-एदस्स (संघादसुदणाण- मल से लिप्त हो रहा है तथा मलिन होने के साथ वे स्स) उवरि अक्खरसुदणाणं वढिदे संधायसमासो नंगे व निर्लज्ज हैं, ये इसी लोक में दुःख का अनुणाम सुदणाणं होदि । एवं संधायसमासो वड्ढमाणो भव करते हैं, फिर भला वे परलोक में कहां से सुखी गच्छदि जाव एयअक्खरसुदणाणेणूणपडिवत्तिसुद- हो सकते हैं, इत्यादि प्रकार मुनिसमूह के सम्बन्ध में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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