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________________ सर्वतः ब्रह्मचर्यपोषध] १११२, जैन-लक्षणावली [सर्वसाधु मकरणम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-८५)। सर्वविरति--स्थूलानामितरेषां च हिंसादीनां विवखेती, व्यापार, पशुपालन और गृहकर्म मादि सभी जनम् । सिद्धिसौधकसरणिः सा सर्वविरतिस्तथा ।। व्यापारों का न करना; इसे सर्वतः कुव्यापारनिषेध. (त्रि. श. पु. च. १, १, १६५) । पोषधवत कहते हैं। स्थल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के हिंसादिक पापों सर्वतः ब्रह्मचर्यपोषध-सर्वतस्तु अहोरात्र यावत का जो परित्याग किया जाता है. इसे सर्वविरति ब्रह्मचर्यपालनम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-८५)। कहते हैं। दिन-रात पर्यन्त ब्रह्मचर्य के परिपालन को सर्वतः सर्वविषयमिथ्यादष्टिप्रशंसन-सर्वविषयं सर्वाब्रह्मचर्यपोषध कहा जाता है । ण्यपि कपिलादिदर्शनानि युक्तियुक्तानीति माध्यस्थ्यसर्वतः स्नानादित्याग-सर्वतस्तु सर्वस्यापि स्ना• सारा स्तुतिः सम्यक्त्वस्य दूषणम् । (योगशा. स्वो. नादेः शरीरसत्कारस्याकरणम् । (योगशा. स्वो. विव. २-१७, पृ. १८६) । विव. ३-८५)। महर्षि कपिल प्रादि के द्वारा प्ररूपित सब ही सम्प्र. शरीरसंस्कार स्वरूप स्नानादि सभी क्रियात्रों का दाय युक्तियुक्त हैं, इत्यादि रूप में जो मध्यस्थ परित्याग करना, इसे सर्वतः स्नानादित्यागपोषध वृत्ति से स्तुति की जाती है उसे सर्व विषयमिथ्याकहते हैं। दृष्टिप्रशंसन कहते हैं। सर्वधत्तासर्व-सा हवइ सव्वधत्ता दुपडोनारा सर्वविषया कांक्षा-देखो सर्वकांक्षा। जिया य अजिया य । दव्वे सव्वघडाई सव्वघत्ता सर्ववि सर्वविषया शङ्का----देखो सर्वशङ्का। पुणो कसिणं ॥ (प्राव. भा. १८७; हरि. वृ. पृ. --१. सब्वमेयं पागयभासाए बद्धं अण्णेण ४७७)। व कुसलकप्पियं होज्जत्ति एसा सव्वसंका। (बशवै. जो जीव-अजीव स्वरूप सब वस्तुओं के समूह को चू. पृ. ६५)। २. सर्वशंका पुनः सकलास्तिकायव्याप्त करके व्यवस्थित है उसे सर्वधत्ता सर्व कहा जात एव किमेवं स्यान्नवमिति । (धा. प्र. टी. जाता है । यह नाम-स्थानादि रूप सात सर्वभेदों में ८७)। ३. सर्वविषया अस्ति वा नास्ति वा धर्म छठा है। इत्यादि । (योगशा. स्वो. विव. २-१७) । सर्वपरिक्षेपी नेगम--सर्वपरिक्षेपी-सर्वं सामा- १ यह सब प्राकृत भाषा में निबद्ध अथवा अन्य के न्यम् एकं नित्यं निरवयवादिरूपम्, तत् परिक्षेप्तुं द्वारा कुशलता से कल्पित हो सकता है, इस प्रकार शीलमस्य स सर्वपरिक्षेपी, सामान्यगृहीति यावत् ।। की शंका को सर्वशंका कहा जाता है। २ समस्त (त. भा. सिद्ध. व. १-३५) । अस्तिकायों के विषय में शंका रखना कि ऐसा जो सबको-सामान्य, एक, नित्य और निरवयवादि होगा या नहीं होगा, इसे सर्वशंका कहते हैं। को-स्वभावतः ग्रहण किया करता है उसे सर्व. सर्वसंक्रमण-चरमकाण्डकचरमफाले: सर्वप्रदेशापरिक्षेपी नेगम कहते हैं। ग्रस्य यत्संक्रमणं तत्सर्वसंक्रमणम् । (गो. क. जी. प्र. सर्वरत्ननिधि--एकेन्द्रियाणि सप्तापि सप्त पंचे- ४१३)। न्द्रियाणि च । चक्रिरत्नानि जायन्ते सर्वरत्नाभिधे अन्तिम काण्डक की अन्तिम फाली के समस्त प्रदेशनिघौ। (त्रि. श. पु. च. १, ४, ५७७) । पिण्ड का जो संक्रमण होता है उसे सर्वसंक्रमण जिस निधि में सात एकेन्द्रिय प्रोर सात पंचेन्द्रिय कहते हैं।। ये चक्रवर्ती के चौदह रत्न उत्पन्न होते हैं उसे सर्व. सर्वसाधु-णिब्याणसाधए जोगे सदा जुजति रत्ननिधि कहा जाता है। साधवो । समा सव्वेसु भूदेसु तह्मा ते सव्वसाधवो । सर्वविपरिणामना-जा पयडी सम्वणिज्जराए णिज्जरिज्जदि सा सव्वविपरिणामणा णाम । (धव. जो मुक्तिसाधक योग-मूलगुणादि रूप अनुष्ठान में पु. १५, पृ. २८३)। -निरन्तर अपने जो योजित करते हैं तथा समस्त जो प्रकृति सर्वनिर्जरा से निजीर्ण होती है उसका प्राणियों में समान--राग-द्वेष से विहीन- रहते हैं, नाम सर्वविपरिणामना प्रकृति है। वे सर्वसाधु कहलाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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