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________________ सम्पूर्ण कुट ] ११००, जिस ग्राम के मध्य में कुछ और कुएं के ऊपर वृक्ष होता है उसका नाम सम्पुटमल्लक है । सम्पूर्णकुट- - यः पुनः सर्वावयवसम्पूर्ण: स सम्पूर्ण - कुट: । ( नाव. नि. मलय. बृ. १३६) । जो घट समस्त अवयवों से परिपूर्ण होता है उसे सम्पूर्णकुट कहा जाता है । सम्पूर्णकुट समान शिष्य - यस्तु श्राचार्योक्तं सकलमपि सूत्रार्थं यथावदवधारयति पश्चादपि च तथैव सम्पूर्ण स्मरति स सम्पूर्णकुटसमान: । ( नाव. नि. मलय. वृ. १३६) । जो शिष्य श्राचार्य के द्वारा वर्णित समस्त सूत्रार्थ को उसी रूप में ग्रहण करता है तथा पीछे भी उसी रूप में सबका स्मरण रखता है वह सम्पूर्णकुट समान शिष्य माना जाता है । सम्प्रत्यय - अतद्गुणे वस्तुनि तद्गुणत्वेनाभिनिवेशः सम्प्रत्ययः । ( नीतिवा. ६-१२, पृ. ७१ ) । जिस वस्तु में जो गुण नहीं है उसमें उस गुण के होने के अभिप्राय को सम्प्रत्यय कहते हैं । सम्बन्ध - द्रव्य क्षेत्र-काल-भावकृता हि प्रत्यासत्तिः एकत्वपरिणति स्वभावा पारतन्त्र्यापरनामा सम्बन्धोऽर्थानाभिप्रेतो जनैः । (न्यायकु. ७, पृ. ३०६ - ७ ) । पदार्थों में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को अपेक्षा से जो स्वभावतः एकत्व परिणति होती है, जिसे दूसरे शब्द से परतन्त्रता कहा जा सकता है, इसी का नाम सम्बन्ध है । जैन - लक्षणावली सम्भव - सम्भवन्ति प्रकर्षेण भवन्ति चतुस्त्रिशदतिशयगुणा अस्मिन्निति सम्भवः, शं सुखं भवत्यस्मिन् स्तुते इति शम्भवो वा, तत्र " श षोः सः " [ ८1११२६०] इति सत्त्वे सम्भवः, तथा गर्भगतेऽप्यस्मिन् अभ्यधिकसस्यसम्भवात्सम्भवः । (योगशा. स्वो. विव. ३ - १२४) । चौंतीस प्रतिशयों के सम्भव - प्रकर्षप्राप्त - होने से तीसरे तीर्थंकर का नाम सम्भव प्रसिद्ध हुआ । इसके अतिरिक्त 'शं' का अर्थ सुख होता है, वह उनकी स्तुति करने पर चूंकि स्तोता को प्राप्त होता है, इससे उन्हें सम्भव ( व्याकरण के नियमानुसार यहां श के स्थान में स हो गया है) कहा गया है तथा उनके गर्भ में स्थित होने पर धान्य अधिक उत्पन्न हुआ था, इससे भी वे सम्भव कहलाए । Jain Education International [ सम्भिन्नबुद्धि सम्भवयोग- इंदो मेरु चालइदं समत्यो त्ति एसो संभवजोगो णाम । (धव. पु. १, पृ. ४३४ ) । इन्द्र मेरु पर्वत को चलायमान करने में समर्थ है, इस प्रकार के योग को सम्भवयोग कहा जाता है । सम्भावनासत्य- देखो संभावनासत्य । १. संभावणा य सच्चं जदि णामेच्छेज्ज एव कुज्जंति । जदि सक्को इच्छेज्जो जंबूदीवं हि पल्लत्थे ॥ ( मूला. ५- ११५ ) । २. वस्तुनि तथाऽप्रवृत्तेऽपि तथाभूतकार्ययोग्यतादर्शनात् सम्भावनया वृत्तं सम्भावनासत्यम् । (भ. प्रा. विजयो. ११६३) । ३ संभावतर्जभ्योद्धर्तुं मेरुमपीति वा ।। (याचा. सा. ५-३६)। नेति सोक्ता वाग्वस्तुसद्भावभावना । शक्रः शक्नोति ४. X X X दारयेदपि गिरि शीर्षेण संभावने । ( अन. घ. ४-४७) । ५ सम्भावनासत्यं यथा वस्तुनि तथाप्रवृत्तेऽपि तथाभूतकार्य योग्यतादर्शनात् प्रवृत्तम्, यथा अपि दोर्भ्यां समुद्र तरेद् देवदत्तः । ( भ. प्रा. मूला. १९६३) । १ यदि इच्छा करे तो वंसा कर सकता है, इस प्रकार की सम्भावना होने पर जो तदनुरूप वचन बोला जाता है उसे सम्भावनासत्य कहा जाता है। जैसे इन्द्र जम्बूद्वीप को पलट सकता है । सम्भिन्न बुद्धि - १. सम्यक् श्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमेन भिन्ना: अनुविद्धा: संभिन्नाः, संभिन्नाश्च ते श्रोतारश्च ते संभिन्नश्रोतारः । प्रणगाणं सद्दाणं अक्खराणक्ख र सरुवाणं कथंचियाणमक्कमेण पयत्ताणं सोदारा संभिण्णसोदारा त्ति निद्दिट्ठा । × × × एरिसियानो चत्तारि श्रक्खोहिणीश्रो सग-सगभासाहि अक्खराणक्खरसरूवाहि अक्कमेण जदि भणति तो वि संभिण्णसोदारो अक्कमेण सव्वभासानो घेत्तुण पदुप्पादेदि । (धव. पु. εपृ ६१-६२ ) । २. चक्रवतिस्कन्धावारमध्ये यद्वृत्तमार्या- श्लोक मात्रा द्विपद-दंडकादिकमनेकभेदभिन्नं सर्वैः पठितं गेयविशेषादिकं च स्वरादिकं च यच्छ्र ुतं यस्मिन् यस्मिन् येन येन पठितं तत्सर्वं तस्मिन् तस्मिन् काले तस्य तस्यानिष्टं ये कथयन्ति ते सम्भिन्नबुद्धयः । ( मूला. वृ. ९-६६ ) । १ श्रोत्रेन्द्रियावरण के क्षयोपशम से विशिष्ट जो श्रोता एक साथ उच्चारित प्रक्षर अनक्षर स्वरूप अनेक शब्दों को पृथक् पृथक् सुन लिया करते हैं वे सम्भिन्नश्रोता कहलाते हैं । ऐसे सम्भिन्नश्रोता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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