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________________ जैन लक्षणावलो सम्यक्त्व-दर्शन, सद्दर्शन, सद्वृष्टि, सम्यग्दर्शन और सम्यग्दृष्टि ये प्राय: प्रकृत सम्यक्त्व के समानार्थक शब्द हैं । बोधप्राभूत (१४) में दर्शन के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो सम्यक्त्व, संयम और उत्तम धर्मस्वरूप मोक्षमार्ग को दिखलाता है तथा परिग्रह से रहित होता हुमा ज्ञानस्वरूप है उसे जैन मार्ग में दर्शन कहा गया है। पंचास्तिकाय (१०७)में भावों--जीव-अजीव आदि नौ पदार्थो के श्रद्वान को सम्यक्त्व कहा गया है। आगे इसी पंचास्तिकाय की गा. १६० और तत्त्वानुशासन (३०) में धर्मादिकों के श्रद्धान को सम्यक्त्व का लक्षण प्रगट किया गया है। समयप्राभूत (११) में सम्यग्दृष्टि उसे कहा गया है जो भूतार्थ (शुद्धनय) के आश्रित हैं । आगे इसी समयप्राभृत (१५) और मूलाचार (५-६ ) में भी समान शब्दों में भूतार्थस्वरूप से अधिगत जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष इनको ही अभेद विवक्षा से सम्यक्त्व कहा गया है। आगे उक्त समयप्राभत (१६५) मेंजीवादि के श्रद्धान को भी सम्यक्त्व का लक्षण प्रगट किया गया है । नियमसार गा. ५ में प्राप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान को; गा. ५१ में विपरीत अभिप्राय से रहित श्रद्धान को, तथा गा. ५२ में चल, मलिन और प्रगाढता दोषों से रहित श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा गया है। दर्शनप्राभूत (१६)में छह द्रव्य, नौ पदार्थ,पांच अस्तिकाय और सात तत्त्व इनके स्वरूप के श्रद्धान करने वाले को सम्यग्दष्टि तथा यहीं पर आगे (गा. २०) जीवादि के श्रद्धान को व्यवहार से सम्यक्त्व एवं प्रात्मा के श्रद्धान को निश्चय से सम्यक्त्व कहा गया है। मोक्षप्राभूत (१४) के अनुसार सम्यग्दृष्टि बह श्रमण होता है जो स्वद्रव्य में निरत रहता है। आगे इस मोक्षप्राभृत (३८) और उपासकाध्ययन (२६७) में तत्त्वांच को तथा उसके आगे इसी मोक्षप्राभत की गा. ६० और भावसंग्रह की गा. २६२ में समान शब्दों द्वारा हिंसा से रहित धर्म,अठारह दोषों से रहित देव, निग्रंथ गुरु और प्रावचन --प्रवचन से होने वाले ज्ञान अथवा द्रव्यश्र त-विषयक श्रद्धान को सम्यक्त्व का लक्षण कहा गया है। यहां यह स्मरणीय है कि मलाचार, उपासकाध्ययन और भावसंग्रह को छोड़कर उपर्युक्त सभी ग्रन्थ कुन्दकुन्दाचार्य के द्वारा रचे गये हैं। जैसा कि पूर्व में निर्देश किया जा चुका है, मूलाचार(५-६) में समयप्राभृत की १५वीं गाथा को आत्मसात् कर तदनुसार भूतार्थस्वरूप से अधिगत जीवादि नौ पदार्थों को ही सम्यक्त्व कहा गया है। इसके पूर्व (५-५) यहां मार्ग (मोक्षमार्ग) को भी सम्यक्त्व कहा जा चुका है। आगे यहां (५-६८) यह भी कहा गया है कि 'जो जिन देव के द्वारा उपदिष्ट है वही यथार्थ है', इस प्रकार भावतः-परमार्थ से-ग्रहण करना, यह सम्यग्दर्शन का लक्षण है । वृत्तिकार ने इसे आज्ञा सम्यक्त्व का लक्षण कहा है। ध्यान रहे कि ये लक्षण यहां दर्शनाचार के प्रसंग में निर्दिष्ट किये गये हैं । इस प्रकार यहां सम्यग्दर्शन के लिये दर्शन (५-३) सम्यक्त्व (५,५-६) और सम्यग्यदर्शन (५-६८) ये तीन शब्द प्रयुक्त हुए हैं। उत्तराध्ययन (२८-१४-१५) में कहा गया है कि जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, प्रास्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये नौ पदार्थ जिस रूप में अवस्थित हैं उसी रूप में उनका जो श्रद्धान करता है उसके वह सम्यक्त्व जानना चाहिए। यहां यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि पूर्वोक्त समयप्राभृत (१५) में जहां भूतार्थ से अधिगत इन्हीं नौ पदार्थों को ही अभेदविवक्षा से सम्यक्त्व कहा गया है वहां प्रकृत उत्तराध्ययन में उनके श्रद्धान को सम्यक्त्व का लक्षण निदिष्ट किया गया है। प्रकृत उत्तरा. की चुणि (पृ. २७२) में कहा गया है कि शद्ध पदार्थों के विषय में जो निसर्ग अथवा अधिगम से रुचि होती है उसका नाम सम्यरदर्शन है। यह स्पष्टतः त. सू. (१,२-३) का अनुसरण है। तत्त्वानुशासन (२५) के अनुसार जो जीवादि नौ पदार्थ जिन देव के द्वारा जिस प्रकार से उपदिष्ट हैं वे उसी प्रकार हैं, ऐसी जो श्रद्धा होती है उसे सम्यग्दर्शन माना गया है। इसमें सम्भवत: मूलाचार (५-६८) का अनुसरण किया गया है। लगभग यही अभिप्राय धर्मपरीक्षा (१६.१०) में भी प्रगट किया गया है, जो शब्द और अर्थ से भी प्रकृत तत्त्वानुशासन से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। तत्त्वार्थसून १-२ में तत्त्वार्थश्रद्धान को सम्यग्दर्शन का लक्षण कहा गया है। इसके भाष्य (१-१) में प्रशस्त अथवा संगत दर्शन को सम्यक्त्व कालक्षण निर्दिष्ट किया गया है । आगे इसी भाष्य (१-२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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