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________________ सद्या १०८८, जैन-लक्षणावली [सन्मिश्राहार यद्वेद्यते तत्सातवेदनीयम् । (श्रा. प्र. १४) । ५. 'यह ढूंठ है या पुरुष' इस प्रकार जो अनेक विषयों यस्योदयात् सुखं तत् स्यात् सद्वेद्यं देहिनां तथा। में चलात्मक ज्ञान (सन्देह) होता है उसके विषय(त. श्लो. ८, २५, १)। ६. यदुदयाद् देव-मनुष्य- भूत पदार्थ को सन्दिग्ध अर्थ कहा जाता है। तिर्यग्गतिषु शरीरं मानसं च सुखं लभते तद् भवति । सन्दिग्धासिद्धहेत्वाभास- स्वरूपसन्देहे सन्दिसद्वेद्यम् । (त. वृत्ति श्रुत. ८-८)। ग्यासिद्धः । xxx यथा-धूम-वाष्पादिविवेका. जिसके उदय से देवादि गतियों में शारीरिक और निश्चये कश्चिदाह-अग्निमानयं प्रदेशो धमवत्त्वात् मानसिक सुख की प्राप्ति होती है उसे सद्वेद्य कहा इति । (यानी, जाता है। ४ जिसका वेदन प्राह्लाद स्वरूप से स्वरूप में सन्देह रहने पर हेतु स्वरूपासिद्धहेत्वाभास होता है उसे सद्वेद्य कहते हैं । होता है। जैसे - जिसे धूम और वाष्प का भेद सद्वेद्य-देखो सवेंदनीय। ज्ञात नहीं है वह यदि कहता है कि 'यह प्रदेश सधर्मा-सधर्मणे-समान पात्मना समो धर्मः क्रिया- अग्निवाला है, क्योंकि वह धमयुक्त है। इसमें यद्यपि मंत्र-व्रतादिलक्षणो गुणो यस्य तस्मै xxx। धूम हेतु अग्नि का साधक है, पर यहां धूम व (सा. घ. स्वो. टी. २-५६)। वाष्प में सन्देह रहने के कारण इसे सन्दिग्धाजिसका क्रिया, मंत्र और व्रत आदि रूप धर्म अपने सिद्धहेत्वाभास माना गया है। समान होता है उसे सधर्मा कहा जाता है। सन्निकर्ष- एकस्मिन् वस्तुन्येकस्मिन् धर्म निरुद्ध सधमभोजन - तं पुण होइ सधूमं जं पाहारेइ शेषधर्माणां तत्र सत्त्वासत्त्वविचारः, सत्स्वप्येकस्मिनिदंतो ।। (पिण्डनि. ६५५) । न्नुत्कर्षमुपगते शेषाणामुत्कर्षानुत्कर्षविचारश्च सन्निसाधु निन्दा करते हुए जिस भोजन का उपयोग कर्षः । (धव. पु. १३, पृ २८४)। करता है वह सधम नामक ग्रासैषणादोष से दूषित एक वस्तु में किसी एक धर्म के विवक्षित होने पर होता है। शेष धर्मों के उसमें सत्त्व-असत्त्व का विचार करना सनिरुद्ध कायक्लेश-सणिरुद्धं निश्चलमवस्थानम् । तथा उनमें भी किसी एक के उत्कर्ष को प्राप्त होने पर (भ. प्रा. विजयो. व मूला. २२३) । शेष धर्मों के उत्कर्ष-अनुत्कर्ष का भी विचार करना, कायोत्सर्ग में निश्चलरूप से स्थित रहना, यह सनि इसे सन्निकर्ष कहते हैं । रुद्धस्थानयोग कहलाता है। सन्निपात-सन्निपातो द्वि-त्रिभावानां संयोगः । सन्तान--पूर्वापरकालभाविनोरपि हेतु-फलव्यपदेश (प्राव. भा. मलय. व. २०२, पृ. ५६३)। भाजोरतिशयात्मनोरन्वयः सन्तानः । (प्रष्टश. प्रौदयिक व प्रौपशमिकादि भावों में दो-तीन आदि २६)। भावों के संयोग को सन्निपात कहते हैं। पूर्वोत्तर काल में रहते हुए भी अतिशयस्वरूप कारण व कार्य कहलाने वालों में जो अन्वय रहता है उसे सन्तान कहा जाता है। (ललितवि. पृ. ८०)। २. सन्मानो वस्त्रादिपूजसन्तोषव्रत-देखो परिग्रहपरिमाणाणवत । वास्तू नम् । (समवा. अभय, वृ. ६१)। क्षेत्रं धनं धान्यं पशु-प्रेष्यजनादिकम् । परिमाणं कृतं १ स्तुति आदि के द्वारा गुणों की उन्नति करने को यत्तत्सन्तोषव्रतमुच्यते ।। (वरांगच. १५-११६)। सन्मान कहते हैं। २ वस्त्रादि के द्वारा पूजा करने वास्तु, क्षेत्र, धन, धान्य, पशु और दास प्रादि का नाम सन्मान विनय है। बाह्यपरिग्रह के विषय में जोपरिमाण किया जाता सम्मिश्राहार-देखो सचित्तसम्मिश्राहार। तथा है उसे सन्तोषव्रत कहते हैं। यह परिग्रहपरिमाण- सचित्तेन मिश्रः शबलः आहारः सन्मिश्राहारः, यथाव्रत का नामान्तर है। आर्द्रक-दाडिमबीज-कूलिका-चिर्भटिकादिमिश्रः पूरसन्दिग्ध अर्थ-किमयं स्थाणुः पुरुषो वेति चलित. णादिः, तिल मिश्रो यवधानादिर्वा, अयमप्यनाभोगाप्रतिपत्तिविषयभूतो ह्यर्थः सन्दिग्धोऽभिधीयते । (प्र. दिनातिचारः। अथवा सम्भवत्सचित्तावयवस्यापक्व. क. मा. ३-२१, पृ. ३६६) । कणिक्कादेः पिष्टत्वादिना प्रचेतनमिति बद्धया For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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