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________________ सत्] १०८१, जैन-लक्षणावली [सत्कार-पुरस्कारपरीषहजय वंशत्वं यतोऽभ्येति पुमान् कृती ॥ (म. पु. ३६, भक्त-पान-वस्त्र-पात्रादीनां परतो लाभः । (प्राव. ८२-८४)। हरि. वृ. प्र. ४, पृ. ६५८)। ३. प्रभ्युत्थानादिसम्भ्रकर्वन्वय क्रियानों में सज्जाति प्रथम है, वह प्रासन्न- मः सत्कारः। (प्राव. नि. हरि. व. ९२१, पृ. भव्य के मनुष्य जन्म के प्राप्त होने पर होती है। ४०६)। ४.प्रवरवस्त्राभरणादिभिरभ्यर्चनं सत्कारः। मनुष्य पर्याय के प्राप्त होने पर दीक्षा योग्य कुल में (ललितवि. प. ७७)। ५. अभ्युत्थानासनदानजो विशुद्ध जन्म होता है उसे सज्जाति माना जाता वंदनाद्यनुब्रजनादिः सत्कारः। (श्रा. प्र. टी. ३२५)। है। विशुद्ध कुल और जाति प्रादि रूप सम्पत्ति को ६. सत्कारो वन्दन-स्तवादिः । (समवा. वृ. ६१, पृ. ही सज्जाति कहा जाता है। पुण्यशाली मनुष्य जो ८६) । ७. सत्कारो भक्त-पान-वस्त्र-पात्रादिना उत्तरोत्तर उत्तमोत्तम वंश को प्राप्त करता है वह परतो योगः । (त. भा. सिद्ध. व. ६-६) । ८. इस सज्जाति के प्रभाव से ही करता है। सत्कार: प्रशंसादिकः । (चा. सा. पृ. ५६) । सत् ---१. उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत् । (त. सू. १ पूजा-प्रशंसा प्रादि रूप प्रादरभाव का नाम ५-३०) । २. प्रतिक्षणं स्थित्युदय-व्ययात्मतत्त्वव्य- सत्कार है। ४ उत्तम बस्त्र व प्राभरण प्रादि के वस्थं सदिहार्थरूपम् ।। (युक्त्यनु. ४६)। ३. उत्- द्वारा पूजा करना, इसे सत्कार कहते हैं। ५ गुरुजन पाद-व्ययाभ्यां ध्रौव्येण च युक्तं सतो लक्षणम् ; को प्राते देखकर खड़े हो जाना, उन्हें प्रासन देना, यदुत्पद्यते, यद् व्येति, यच्च ध्रुवं तत् सत् । (त. भा. वन्दना करना तथा जाते समय उनके पीछे जाना, ५-२६)। ४. येनोत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं यत्तत्स- यह सब सत्कार के अन्तर्गत है । ६ वन्दना व स्तवन दिष्यते । (षड्द. स. ५७, पृ. २२५) । ५. सीदति आदि रूप अनुष्ठान को सत्कार कहा जाता है। स्वकीयान् गुण-पर्यायान् व्याप्नोतीति सत् । (माला- सत्कार-पुरस्कार - सत्कार-पुरस्कारी च वस्त्रादिपप. पृ. १४०)। ६. जो अत्थो पडिसमयं उप्पाद- पूजनाभ्युत्थानादिसंपादनेन सत्कारेण वा पुरस्करणं वय-धुवत्तसब्भावो । गुण-पज्जयपरिणामो सो संतो सन्माननं सत्कारपुरस्कारः। (समवा. वृ. २२) । भण्णदे समये ।। (कातिके. २३७)। ७. सकल- वस्त्र आदि के द्वारा पूजा करना तथा उठकर खड़े पदार्थाधिगतिमूलं द्रव्य-पर्याय-गुण-सामान्य-विशेष- हो जाने प्रादि रूप सत्कार के प्राश्रय से जो पुरस्कविषयं सदित्यभिधानं सत् । (न्यायकु. ७६, पृ. रण किया जाता है--सन्मान दिया जाता है, इसे ८०२) । ८. द्रव्य-पर्याय-सामान्य-विशेषोत्पाद-व्यय- सत्कार-पुरस्कार कहते हैं। ध्रौव्यव्यापकं सदिति कथनम् । (लघीय. पृ. ६५)। सत्कार-पुरस्कारपरीषहजय - १. सत्कारः १ जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से सहित होता है पूजा-प्रशंसात्मकः, पुरस्कारो नाम क्रियारम्भादिष्वग्रउसे सत् कहते हैं। ५ जो अपने गुणों और पर्यायों त: करणमामन्त्रणं वा, तत्रानादरो मयि क्रियते, को व्याप्त करता है उसे सत् कहा जाता है। चिरोषितब्रह्मचर्यस्य महातपस्विनः स्व-परसमयनिसत्कर्म-बंधसमयानो पाढत्तं जाव अक्खीणं पत्तो। र्णयज्ञस्य बहुकृत्वः परवादिविजयिनः प्रणाम-भक्तिगतो वा रसविसेसेण परिणामितं तं जाव अण्णहा- सम्भ्रमासनप्रदानादीनि मे न कश्चित्करोति, भावं ण णीतं ताव संतकम्मं वच्चदि। (कर्मप्र. च. मिथ्यादृष्टय एवातीव भक्तिमन्तः किञ्चिदजानन्त. १)। मपि सर्वज्ञसम्भावनया सम्मान्य स्वसमयप्रभावनं बन्धसमय से प्रारम्भ करके जब तक विवक्षित कर्म । कुर्वन्ति । व्यन्तरादयः पुरा अत्युग्रतपसां प्रत्यग्रपूजां क्षय को प्राप्त न होता हना रसविशेष से अन्यथा निवर्तयन्तीति मिथ्या श्रुतिर्यदि न स्यादिदानी कस्मास्वरूप को प्राप्त नहीं कराया जाता-तवरूप ही मादृशां न कुर्वन्तीति दुष्प्रणिधानविरहितचित्तस्य प्रवस्थित रहता है तब तक उसे सत्कर्म कहा सत्कार-पुरस्कारपरीषहविजयः प्रतिज्ञायते । (स. जाता है। सि. ६-६) । २. मानापमानयोस्तुल्यमनसः सत्कारसत्कार--१. सत्कारः पूजा-प्रशंसात्मकः । (स. पुरस्कारानभिलाषः। (त. वा. ६, ६, २५; त. श्लो. सि. ६-६; त. वा. ६, ६, २५) । २. सत्कारो ६-६); चिरोषितब्रह्मचर्यस्य महातपस्विनः स्व. ल. १३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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