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________________ श्रद्धानप्रायश्चित्त] १०६८, जैन-लक्षणावली [श्रमणाभास १ मिथ्यात्व मोहनीयकर्म के क्षयोपशम प्रादि से समणे त्ति वच्चे। (सूत्रकृ. सू. १, १६, २ । चित्त की जो प्रसन्नता होती है उसे श्रद्धा कहा ३. समो सव्वत्थ मणो जस्स भवति स समणो। जाता है। जैसे जल को निर्मलता का कारण मणि (उत्तरा. चू. पृ. ७२)। ४. सर्वग्रन्थविनिर्मुक्ता है वैसे ही चित्त की निर्मलता का कारण श्रद्धा है। महातपसि ये रताः। श्रमणास्ते परं पात्रं तत्त्व२ समीचीन गुरु के उपदेश से जाने हुए पदार्थों में ध्यानपरायणाः । (पद्मपु. १४-५८) । ५. श्राम्यति जो रुचि होती है उसे श्रद्धा कहते हैं। तपस्यतीति श्रमणः, तस्य भावं श्रामण्यं श्रमणशब्दश्रद्धानप्रायश्चित्त-१. मिच्छत्तं गंतूण ट्रियस्स स्य पुंसि प्रवृत्तिनिमित्तं तपःक्रिया श्रामण्यम् ॥ (भ. महव्वयाणि घेत्तण अत्तागम-पयत्थसद्दहणा चेव प्रा. विजयो. ७१) । ६. श्राम्यतीति श्रमणो द्वादश[सहहणा-] पायच्छित्तं । (घव. पु.१३, प.६३)। प्रकारतपोनिष्टप्तदेहः। (सत्रकृ. स. शी. व. २,६, २. श्रद्धानं सावद्यगतस्य मनसो मिथ्यादुष्कृताभि- ४, पृ. १४१)। ७. यो न श्रान्तो भवेद् भ्रान्तेस्तं व्यक्ति-निवर्तनम् । (मूला. वृ. ११-१६) । विदुः श्रमणं बुधाः ॥ (उपासका. ८५६)। ८. श्रा३. गत्वा स्थितस्य मिथ्यात्वं यद्दीक्षाग्रहणं पुनः । म्यति संसारविषये खिन्नो भवति तपस्यतीति वा, तच्छ्रद्धानमिति ख्यातमुपस्थापनमित्यपि ॥ (अन. ध. नन्द्यादित्वात् कर्तरि अने श्रमणः। (योगशा. स्वो. ७-५७)। ४. परिणामपच्चएणं सम्मत्तं उज्झिऊण विव. ३-१३०)। मिच्छत्तं । पडिवज्जिऊण पूणरवि परिणामवसेण सो १ जो पांच समितियों से सम्पन्न, तीन गप्तियों से जीवो।। णिदण-गरहणजत्तो णियत्तिऊणो पडिविज्ज संरक्षित, पांच इन्द्रियों से संवत, कषायों का विजेता, सम्मत्तं । जं तं पायच्छित्तं सद्दहणासण्णिदं होदि । दर्शन-ज्ञान से परिपूर्ण, शत्रु व मित्र में समानता का (छेदपिण्ड २८५-८६)।। व्यवहार करने वाला, सुख-दुख में हर्ष-विषाद से १ मिथ्यात्व को प्राप्त होकर स्थित जीव जो महा- सहित, प्रशंसा व निन्दा में समान, ढेले व कांच को ब्रतों को ग्रहण करके प्राप्त, आगम और पदार्थों समान समझने वाला तथा जीवन व मरण में समान का श्रद्धान करता है, यह उसका श्रद्धान या श्रद्द रहता है। ऐसे संयत को श्रमण कहा जाता है। धना नाम का प्रायश्चित्त है। २ पापाचरण को २ श्रमण अनिश्रित-शरीर प्रादि के विषय में प्राप्त मन मिथ्या दुष्कृत को अभिव्यक्त करके प्रतिबन्ध से रहित और निदान से भी रहित होकर जो उससे निवृत्त होता है उसका नाम श्रद्धान- आदान-सावद्य अनुष्ठान, प्रतिपात-प्राणातिपात प्रायश्चित्त है। ४ परिणाम के निमित्त से सम्य- (हिंसा), असत्य वचन, बहिद्ध-मैथुन-परिग्रह, क्रोध, क्त्व को छोड़कर मिथ्यात्व को प्राप्त हा जीव ____ मान, माया, लोभ, प्रेम और द्वेष इत्यादि जो स्व परिणाम के वश फिर से जो निन्दा व गीं से युक्त व पर के लिए अनर्थकारी हैं उन सबका ज्ञ-परिज्ञा होकर उस मिथ्यात्व से हटता है और सम्यक्त्व को से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग करे । इसके स्वीकार करता है उसका यह श्रद्धान नामक प्राय- अतिरिक्त अनर्थ के हेतुभूत जिस जिस सावध अनु. श्चित्त है। ष्ठान से अपने अपाय व प्रद्वेष के कारणों को भी श्रमण-१. पंचसमिदो तिगुत्तो पचेंदियसंवुडो देखता है उस उससे विरत हो; इस प्रकार से जो जिदकसानो। दंसण-णाणसमग्गो समणो सो संजदो दान्त (शुद्ध) द्रव्यस्वरूप व शरीर से निःस्पृह हो भणिदो। समसत्तु-बंधुवग्गो समसुह-दुःखो पसंस-णिद• चुका है उसे श्रमण कहना चाहिए। मलोटठ-कंचणो पूण जीविद-मरणे समो श्रमणाभास-पागमज्ञोऽपि संयतोऽपि तपःस्थोऽपि समणो ॥ (प्रव. सा. ३, ४०-४१)। २. समणे जिनोदितमनन्तार्थनिर्भरं विश्वं स्वेनात्मना ज्ञेयत्वेन अणिस्सिए अणियाणे आदाणं च अतिवायं च मुसा- निष्पीतत्वादात्मप्रधानमश्रद्दधानः श्रमणाभासो वायं च बहिद्धं च कोहं च माणं च मायं च लोहं भवति । (प्रव. सा. अमत. व. ३-६४) । च पिज्जं च दोसं च इच्चेव जो जो आदाणं जो पागम का ज्ञाता भी है, संयत भी है तथा जिनोअप्पणो पद्दोसहेऊ तो तमो आदाणातो पुव्वं पडि- पदिष्ट अनन्त पदार्थों से व्याप्त लोक को ज्ञय विरते पाणाइवाया सिया दंते दविए वोसट्टकाए स्वरूप से जानता भी है, परन्तु जो प्रात्मा की For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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