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________________ . शुभ वाग्योग १०६५, जैन-लक्षणावली [शृंग (त. श्लो. ६-३) । ३. शुभपरिणामनिवृत्तो निष्प- १ गुरु के आदेश के सुनने की इच्छा को तथा न्नो योगः शुभः कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ६-३)। उनकी वैयावृत्ति प्रादि को सुश्रूषा कहते हैं। १ शुभ परिणामों से जो योग उत्पन्न होता है उसे शूद्र-१. जे नीयकम्मनिरया, परपेसणकारया शुभ योग कहते हैं। निययकालं । ते होन्ति सुहवग्गा बहुभेया चेव शुभ वाग्योग - १. सत्य-हित-मितभाषणादिः लोगम्मि । (पउमच. ३-११७)। २, शुद्राः शिशुभो वाग्योगः । (त. वा. ६, ३, २)। २. सत्य- ल्पादिसम्बन्धात् Xxx ॥ (ह. पु. ६-३६) । हित-मित-मृदुभाषणादिः शुभो वाग्योगः । (त. वृत्ति ३. तेषां शुश्रूषणाच्छूद्राः XXX । (म. पु. १६, श्रुत. ६-३)। १८५); Xxx शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ।। (म. १ सत्य, हितकर और परिमित भाषण प्रादि को पु. ३८-४६)। ४. शुश्रूषन्ते त्रिवर्णी ये भाण्ड-भूषाशुभ वाग्योग (वचनयोग) कहा जाता है। म्बरादिभिः । (धर्मसं. श्रा. ६-२३२) । शुभास्रव-मनोवाक्कायकर्मभिः शुभैरशुभरास्रवः १ जो नीच कार्य में निरत होकर नियत समय तक xxx। (सिद्धिवि. वृ. ४-६, पृ. २५५)। दूसरों की प्राज्ञा के अनुसार कार्य किया करते हैं वे शुभ, मन, वचन और काय की क्रिया का नाम शद्र कहलाते हैं। २ जो शिल्प आदि कार्य को शुभास्रव है। किया करते हैं उन्हें शूद्र कहा जाता है। शुभोपयोग-१. जो जाणादि जिणिदे पेच्छदि शून्यध्यान-१. जत्थ ण झाणं झेयं झायारो णेव सिद्धे तधेव अणगारे। जीवे य साणकंपो उवयोगो चितणं किपि । ण य धारणावियप्पो तं सुण्णं सुठ्ठ सो सुहो तस्स ।। (प्रव. सा. २-६५)। २. विशि- भाविज्जा ॥ (प्रारा. सा. ७८)। २. रायाईहिं ष्टक्षयोपशमदशाविधान्तदर्शन-चारित्रमोहनीयपूदग- विमुक्कं गयमोहं तत्तपरिणदं णाणं । जिणसाणम्मि लानुवृत्तिपरत्वेन परिगृहीतशोभनोपरागत्वात परम- भणियं सुण्णं इय एरिसं मुणह ॥ इंदियविसयादीदं भट्टारकमहादेवाधिदेवपरमेश्वराहत्सिद्ध - साधुश्रद्धाने अमंत-तंतं अधेय-धारणयं । णहसरिसं पि ण गयणं समस्तभूतग्रामानुकम्पाचरणे च प्रवृत्तः शुभ उपयोगः। तं सुण्णं केवलं गाणं ।। (ज्ञा. सा. पद्म. ४१-४२)। (प्र. सा. अमृत. व. २-६५)। १ जिस ध्यान में ध्यान, ध्येय और ध्याता १ जो जीव जिनेन्द्रों को जानता है, सिद्धों व गृह के का कुछ भेद नहीं रहता; चिन्तन भी कुछ नहीं त्यागी मुनियों को देखता है-उन पर श्रद्धा रखता रहता है, तथा धारणा का विकल्प भी नहीं रहता है, तथा समस्त जीवों के विषय में दयालुता का है उसे शून्यध्यान जानना चाहिए। व्यवहार करता है उसका जो इस प्रकार का उपयोग शून्यवर्गणा-सुण्णाम्रो णाम परमाणुविरहिदवग्गहोता है उसे शुभ-उपयोग कहते हैं। णाओ। (धव. पु. १४, पृ. १३६) । शुषिर-१. वंश-शंखादिनिमित्तः सौषिरः। (स. परमाणु से रहित वर्गणानों को शून्यवर्गणायें कहा सि. ५-२४; त. वा. ५, २४, ५)। २. शुशिरं जाता है। वंशसम्भूतं xxx । (पद्मपु. २४-२०)। ३. शु- शूर-कः शूरो यो ललनालोचनवाणर्न च व्यथिषिरं शंख-काहलादि । (रायप. पृ. ६६)। तः ॥ (प्रश्नो . र. ८)। १ बांस व शख प्रादि से जो शब्द उत्पन्न होता है जो स्त्रियों के नेत्ररूप वाणों से पीड़ित नहीं होता उसे शोषिर या शुषिर कहते हैं। ३ शंख व काहल है उसे वस्तुतः शूर समझना चाहिए। प्रादि से उत्पन्न होने वाले शब्द को शुषिर कहा शृंखलित दोष-शृङ्खलाबद्धवत् पादौ कृत्वा जाता है। । शृंखलितं स्थितिः । (अन. ध.८-११४)। . शुश्रूषा-१. गुरोरादेशं प्रति श्रोतुमिच्छा शुश्रूषा, सांकल से बंधे हुए के समान पांवों को करके कायोगुर्वादेर्वेयावृत्त्यमित्यर्थः । (सूत्रकृ. सू. शी. व. १, ६, त्सर्ग में स्थित होने पर शृखलित नाम का दोष ३३)। २. शुश्रूषा श्रोतुमिच्छा। (योगशा. स्वो. होता है । विव. १-५१)। शृंग-शृङ्गम् अहो कायं काय इत्याद्यावर्तानुच्चा. __ ल. १३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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