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________________ शुचि] . १०६२, जैन-लक्षणावली [शुद्धपरिहार वत्तव्वो (जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपोग्गलाणं नितीरणम् ।। (त. श्लो. १, ३३, ४१) । सक्किलवण्णो उप्पज्ज दि तं सुक्किलवण्णणाम)। संसार में सुख सत, क्षणिक व शद्ध है; इस प्रकार जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुदगलों में शुक्ल- शुद्ध द्रव्यार्थपर्यायनैगमनय की अपेक्षा कहा जाता है। वर्ण उत्पन्न होता है उसका नाम शुक्लवर्णनाम- शुद्धद्रव्याथिकनय--१. कर्मोपाधिनिरपेक्षः शुद्धकर्म है। द्रव्याथिकः, यथा संसारी जीवः सिद्धसदक शुद्धात्मा। शुचि-xxx कः शुचिरिह यस्य मानसं (पालापप. पृ. २१४) । २. शुद्धं पर्यायमलकलंकशुद्धम् । (प्रश्नो . र, ५)। विकलं द्रव्यमेवार्थोऽस्यास्तीति शुद्धद्रव्याथिकः । शचि उसे कहा जाता है, जिसका मन शद्ध होता है। (सिद्धिवि. वृ. ७, पृ. ६६९) । शुद्ध-१. वचनार्थगतदोषातीतत्वाच्छुद्धः सिद्धान्तः । १ कर्म की उपाधि से रहित शुद्ध द्रव्याथिक नय (षव. पु. १३, पृ. २८६)। २. मिथ्यात्व-रागादि का उदाहरण यह है- जैसे संसारी जीव सिद्ध के समस्तविभावरहितत्वेन शुद्धः। (ब. द्रव्यसं. टी. समान शुद्ध प्रात्मा है। २ जो नय पर्यायरूप मल कलक से रहित होकर द्रव्य को ही प्रमखता से विषय २७)। ३. शुद्धः द्रव्य-भावकर्मणामभावात्परमविशुद्धिसमन्वितः । (समाधि. टी. ६) । ४. मनः शुद्धं करता है उसे शुद्धद्रव्याथिकनय कहते हैं। भवेद्यस्य स शुद्ध इति भाष्यते । (नीतिसा. ६) शुद्धद्रव्याथिसंग्रह-१. तत्र सत्तादिना यः सर्व स्य पर्याय-कलंकाभावेन अद्वैतत्वमध्यवस्येति शुद्धद्र१जो सन्दर्भ शब्न व अर्थगत दोषों से रहित होता है वह शुद्ध कहलाता है। यह एक श्रुत का पर्याय व्याथिक संग्रहः । (धव. पु. ६, पृ. १७०) । २. तत्र शुद्धद्रव्याथिकः पर्याय-कलंकरहितः बहुभेदः संग्रहः । नाम है। २ मिथ्यात्व एवं रागादि समस्त विभावों से जो रहित होता है उसे शुद्ध कहा जाता है। (जयध. १, पृ. २१६) । १जो पर्याय के कलंक से रहित होकर- उसे विषय शुद्धकोपहित-१. सुद्धगोवहिदं-शुद्धन निष्पावा न करके-सत्ता प्रादि के द्वारा सबके द्वैत के प्रभाव दिभिरमिश्रणेनान्नेन उवहिदं संसृष्टं शाक-व्यञ्ज स्वरूप एकत्व को विषय करता है उसे शुद्धद्रव्यानादिकम् । (भ. प्रा. विजयो. २२०) । २. सुद्धगो थिकसंग्रह कहते हैं। वहिद- शुद्धेन निष्पावाद्यसंसृष्टेनान्नेनोपहितं संसृष्टं शुद्धध्यान-क्षीणे रागादिसन्ताने प्रसन्ने चान्तशाक-व्यञ्जनादिकं वा, यदि वा शुद्धेन केवलेन केन रात्मनि । यः स्वरूपोपलम्भः स्यात् स शुद्धाख्यः जलेनोपहितं कूरम् । (भ.पा. मूला. २२०)। प्रकीर्तितः ।। (ज्ञाना. ३-३१, पृ. ६७)। २ शुद्ध निष्पाव (धान्यविशेष) प्रादि के संसर्ग से रागादि की परम्परा के नष्ट हो जाने पर जब रहित अन्न से उपहित, अथवा संसष्ट शाक व्यञ्ज अन्तरात्मा प्रसन्न होता है तब जो प्रात्मस्वरूप की नादि को शुद्धगोपहित माना जाता है। अथवा 'क' प्राप्ति होती है उसे शद्धध्यान कहा गया है । का प्रर्थ जल होता है, तदनुसार केवल शुद्ध जल से । शद्धनय- देखो सत्ताग्राहक शुद्धनय । उपहित भात प्रादि को शुद्धकोपहित जानना शुद्धपरिहार-यत् विशुद्धः सन् पंचयाममनुत्तरं चाहिए। धर्म परिहरति करोति, परिहारशब्दस्य परिभोगेशुद्धगोवहित-देखो शुद्धकोपहित । ऽपि वर्तमानत्वात्, स शुद्धपरिहार: शुद्धस्य सतः शुद्धचेतना-१. जीवस्य ज्ञानानुभूतिलक्षणा शुद्ध- परिहार: पंचयाममनुत्तरं धर्मकरणं शुद्धपरिहार चेतना । (पंचा. का. अमृत. वृ. १६) । २. शुद्धा इति । (व्यव. भा. मलय. वृ. पृ. ११)। । स्यादात्मनस्तत्त्वम् xxx। (पंचाध्या. २, विशुद्धि को प्राप्त होकर जो अनुपम पंचयाम-हि१९३)। सादि पांच महाव तरूप सर्वश्रेष्ठ-धर्म को किया १ ज्ञान का अनुभव करना, यह शुद्धचेतना का जाता है, इसका नाम शुद्धपरिहार है । यद्यपि परिलक्षण है। हार शब्द का प्रसिद्ध अर्थ परित्याग है, पर उक्त शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगम-शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनगमो- शब्द परिभोग अर्थ में भी पाया जाता है। यहां ऽस्ति परो यथा । सत्सुखं क्षणिकं शुद्धं संसारेऽस्मि यही अर्थ विवक्षित रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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