SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 392
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शिल्पकर्मार्य] १०५६, जैन-लक्षणावली [शीतपरीषहजय शिल्पकार्य-१. रजक-नापिताऽयस्कार-कुलाल- १ जो भव्य 'मेरे लिए हितकर क्या है इसका सुवर्णकारादयः शिल्पकार्याः। (त. वा. ३, ३६, विचार करता हा दुःख से अतिशय भयभीत रहता २)। २.निर्णजक-दिवाकीादयः शिल्पकार्याः। हो, सुख का अभिलाषी हो; श्रवण प्रादि बद्धि के (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६)। वैभव-सुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, ऊह, अपोह, १ धोबी, नाई, लुहार, कुम्हार और सुनार प्रादि अर्थविज्ञान और तत्त्वज्ञान इन पाठ बद्धिगणों सेशिल्पकर्मार्य कहे जाते हैं। संयुक्त हो; तथा जो सुन करके व विचार करके जो शिव-१. कल्याणं परमं सौख्यं निर्वाणपदमच्युतम्। सुखकर दयामय धर्म युक्ति व प्रागम से सिद्ध है साधितं येन देवेन स शिवः परिकीर्तितः ।। (भावसं. उसे ग्रहण करनेवाला हो; ऐसा प्राग्रह रहित वाम. १७२)। २. शिवं परमकल्याणं निर्वाणं शान्त- शिष्य धर्मकथा के सुनने में अधिकृत है-उसके जो गमको मक्षयम । प्राप्तं मक्तिपदं येन सः शिवः परिकी- सुनने का अधिकारी माना गया है। तितः ।। (प्राप्तस्व. २४)। भक्त, संसार से भयभीत, विनीत, धर्मात्मा, बद्धि२ जिस देव ने अतिशय कल्याणकारक, शान्त और मान्, शान्तचित्त, प्रालस्य से रहित और शिष्टाचार प्रविनश्वर मुक्तिपदको प्राप्त कर लिया है उसे शिव का परिपालक होता है, उसे शिष्य कहा जाता है। कहा जाता है। यह प्राप्त के अनेक नामों में से शीतक्षमा-देखो शीतपरीषहजय। शीतनामकर्म-एवं सेसफासाणं पि वत्तव्वं (जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपोग्गलाणं सीदभावो होदि शिविका- माणुसेहि वुब्भमाणा सिविया णाम । तं सीदं णाम)। (घव. पु. ६, प. ७५) । (धव. पु. १४, पृ. ३६)। जिस नामकर्म के उदय से शरीरगत पुदगलों के जो मनुष्यों के द्वारा ले जायी जाती है उसे शिविका शीतता होती है उसे शीतनामकर्म कहते हैं । (पालकी) कहते हैं। शीतपरीषहजय-१. परित्यक्तप्रच्छादनस्य पक्षिम शिष्टत्व --१. शिष्टत्वम् अभिमतसिद्धान्तोक्तार्थ वदनवधारितालयस्य वृक्षमूल-पथ-शिलातलादिषु ता, वक्तुः शिष्टतासूचकत्वं वा । (समवा. वृ. ३५)। हिमानीपतन-शीतलानिलसम्पाते तत्प्रतिकारप्राप्ति २. शिष्टत्वं वक्तुः शिष्टत्वसूचनात् । (रायप. मलय. प्रति निवृत्तेच्छस्य पूर्वानुभूतशीतप्रतिकारहेतुवस्तूव.पृ. १६)। नामस्मरतो ज्ञानमावनागर्भागारे वसतः शीतवेदना१जो वचन अभीष्ट सिद्धान्त के अर्थ का प्रतिपादक सहनं परिकीर्त्यते । (स. सि. ६-६)। २. शैत्यहोता है, अथवा जो वक्ता की शिष्टता का सूचक हेतसन्निधाने तत्प्रतीकारानभिलाषात संयमपरिपा. होता है वह शिष्टत्व नामक अतिशय से संयुक्त लनं शीतक्षमा। (त. वा. ६, ६, ६); परित्यक्तहोता है। यह वचन के ३५ अतिशयों में दसवां है। वाससः पक्षिवदनवधारितालयस्य शरीरमात्राधिकरशिष्टि -शिष्टि सूत्रानुसारेण गणस्य शिक्षादानम् । णस्य शिशिर-वसन्त-जलदागमादिवशाद (चा. सा. (अन. घ. स्वो. टी. ७-९८)। 'दिकालवशाद्') वृक्षमूल-(चा. सा. 'ले')पथि[थ-] मागम के अनुसार गण को शिक्षा देना, इसे शिष्टि गुहादिषु पतितप्रालेयलेशतुषारलवव्य तिकर शिशिकहा जाता है । यह प्रर्हादि लिङ्गों के अन्तर्गत है। रपवनाभ्याहतमूर्तस्तत्प्रतिक्रियासमर्थद्रव्यान्तराग्न्याशिष्य - १. भव्यः किं कुशलं ममेति विमृशन् धनभिसन्धानान्नारकदुःसहशीतवेदनाऽस्मरणात् तदुःखाद् भृशं भीतिमान्, सौख्यैषी श्रवणादिबुद्धिविभवः प्रतिचिकीर्षायां परमार्थविलोपभयाद्विद्या-मन्त्रीषघश्रुत्वा विचार्य स्फुटम् । धर्म शर्मकरं दयागुणमयं पर्ण-बल्कलत्वक्-तृणाजिनादिसम्बन्धात् व्यावत्तमनसः युक्त्यागमाभ्यां स्थितम्, गृह्णन् धर्मकथां श्रुतावधि- परकीयमिव देहं मन्यमानस्य धतिविशेषप्रावरणस्य कृतः शास्यो निरस्ताग्रहः ॥ (मात्मानु. ७) । गर्भागारेषु धूपप्रवेकप्रकर (चा. सा. 'प्रवेकपुष्पप्रकर') २. गुरुभक्तो भवाद् भीतो विनीतो धार्मिक: सुधी। प्ररूपितप्रदीपप्रभेषु वरांगनानवयौवनौष्णघनस्तनशान्तस्वान्तो ह्यतन्द्रालुः शिष्ट: शिष्योऽयमिष्यते ।। नितम्ब-भुजान्तरतजितशीतेषु निवासं सुरतसुख-रसा(क्षत्रचू. २-३१)। कर- (चा. सा. 'सुखाकर'-) मनुभूतमसारत्वावबोधा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy