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________________ वैशद्य] १०३४, जैन-लक्षणावली [व्यक्ताव्यक्तेश्वरनिषिद्ध के बीतने पर जो शेष काल रहता है उसे विरात्रि स्फुटम् ।। (प्राप्तस्व. ४३) । कहा जाता है। वैरात्रिक यह विरात्रि का समा- प्रात्मज्योतियों के पंजस्वरूप जिन अरहन्त ने ध्याननार्थक शब्द है। रूप अग्नि के द्वारा जन्म, मृत्यु और जरा को वैशद्य-१. अनुमानाद्यतिरेकेण विशेषप्रतिभासनम्। भस्मसात् कर दिया है उन्हें वैश्वानर (अग्नि) के तद्वेशद्य मतं बुद्धेः xxx ॥ (लघीय. ४)। नाम से कहा गया है। २. प्रतीत्यन्तराव्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभा- वनसिक बन्ध-१. पुरुषप्रयोगानपेक्षो वस्रसिकः । सनं वैशद्यम् । (परीक्षा. २-४) । ३. सविशेषवर्ण- (स. सि. ५-२४)। २. विरसा विधिविपर्यये संस्थानादिग्रहणं वैशद्यम् । (प्रमेयर. २-४)। निपातः । पौरुषेयपरिणामापेक्षो विधिः, तद्विपर्यये ४. वैशा बुद्धेः ज्ञानस्य, यद्विशेषस्य वर्ण संस्थाना- विस्रसा-शब्दो निपातो द्रष्टव्यः, विनसा प्रयोजनो द्याकारस्थ प्रतिभासनमवबोधनम्, विशेषेण वा वससिको बन्धः । (त. वा. ५, २४, ८)। ३. वैप्रतीत्यन्तराव्यवधानेन प्रतिभासनम् । (लघीय. श्रसिको बन्धः स्वाभाविको बन्धः स्निग्ध-रूक्षत्वप्रभय. वृ. ४)। गुणप्रत्ययः शक्रचाप-मेघोल्का-तडिदादिविषयः । १ अनुमान प्रादि की अपेक्षा जो अधिक प्रतिभास (त. वृत्ति ५-२४) । होता है, इसे ज्ञान का वैशद्य कहा जाता है। २ अन्य १ पुरुष के प्रयोग की अपेक्षा से रहित जो पूदगलों किसी प्रतीति के व्यवधान से रहित जो प्रतिभास में परस्पर बन्ध हमा करता है उसे वरसिक बन्ध होता है उसे अथवा विशेषता से यक्त जो प्रतिभास कहा जाता है। जैसे---इन्द्रधनष व मेघों प्रादि का। होता है उसे वैशद्य कहते हैं। वैस्र सिक शब्द-वैससिको बलाहकादिप्रभवः । वैश्य-१. वाणिज्ज-करिसणाइंगोरक्खणपालणेसु (स. सि. ५-२४; त. वा. ५, २४, ४) । उज्जुत्ता। ते होन्ति वइसनामा वाबारपरायणा मेघ प्रादि से उत्पन्न होने वाले शब्द को पुरुषप्रयोग धीरा । (पउमच. ३-११६) । २. xxx वैश्या की अपेक्षा न रखने के कारण बैनसिक कहा जाता वाणिज्ययोगतः । (ह. पु. ६-३६) । ३. वैश्याश्च है। कृषि-वाणिज्य-पाशुपाल्योपजीविताः ।। (म. पु. १६, वैशाखस्थान-१. यत्पुनः पार्णी अभ्यन्तराभि१८४); ऊरुभ्यां दर्शयन् यात्रामस्रक्षीद्वणिज: मखे कृत्त्वा समश्रेण्या करोति अग्रिमतले च बहिप्रभः। जल-स्थलादियात्राभिस्तवत्तिर्वार्तया यतः।। मखे, ततो युध्यते तत् वैशाखं स्थानम् । (व्यव. भा. (म. पु. १६-२४४); वणिजोऽर्थार्जनान्न्यायात् । मलय. व. ३५, पृ. १३) । २. वइसाहं पण्हीतो XXX ॥ (म. पु. ३८-४६)। ४. मषिः अभि उरळंतीमो समसेढीए करेइ, अग्गिमतला कृषिश्च वाणिज्यकर्मत्रितयवेतनाः। वैश्याः केचि- बाहिरहत्ता। (प्राव. नि. मलय. व. १०३६, पृ. न्मताश्चान्यः पशुपालनतोऽपि च । (धर्मसं. श्रा. ६, ५६७) । २३०)। १दोनों एड़ियों को अभ्यन्तराभिमुख करके समान १ जो वाणिज्य, कृषिकर्म (खेती) और गोरक्षण व पंक्ति में करे तथा प्रागे के दोनों तलभागों को पालन में उद्यमी रहते हैं वे वैश्य कहलाते हैं। बाहिर की भोर करे, ऐसा करने पर वैशाखस्थान २ वाणिज्य (व्यापार) कार्य के सम्बन्ध से वैश्य होता है यह पांच प्रासनभेदों में तीसरा है । माने गए हैं। ३ कृषि, व्यापार और पशपालन के व्यक्त गेय-अक्षर-स्वरस्फुटकरणतो व्यक्तम् । द्वारा जो प्राजीविका करते हैं वे वैश्य कहलाते हैं। (रायप. मलय. व. पृ. १६२) । भगवान आदिनाथ ने दोनों जंघानों से यात्रा को जिस गेय (गीत) में अक्षर व स्वर स्पष्ट रहते हैं दिखलाते हुए वैश्यों को स्थापित किया था जो जल उसे व्यक्त कहा जाता है। यह गेय के पूर्ण व रक्त व स्थल आदि में यात्रा करके व्यापार के द्वारा आदि पाठ गुणों में चौथा है। माजीविका करते हैं। व्यक्ताव्यक्तेश्वरनिषिद्ध-निषिद्धमीश्वरं भावैश्वानर-जन्म-मृत्यू-जरारोगाः प्रदग्धा ध्यान- व्यक्ताव्यक्तोभयात्मना । (अन. ध. ५-१५); वह्निना। यस्यात्मज्योतिषां राशेः सोऽस्तु वैश्वानरः यदैकेन दानपतिना व्यक्तेन द्वितीयेन चाव्यक्तेन च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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