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________________ वनयिकश्रुत] १०३१, जैन-लक्षणावली [वैयावृत्त्य तप वादिनो विनयप्रतिपत्तिलक्षणास्तेऽपि मोहान्मुक्तिपथ- १ विनय से जो बारह अंगस्वरूप श्रुत के योग्य बुद्धि परिभ्रष्टाः वेदितव्याः । तथाहि-विनयो नाम उत्पन्न होती है उसे वनयिको प्रज्ञा कहते हैं। मुक्त्यङ्ग यो मक्तिपथानुकूलो म शेषाः। (नन्दी. सू. ३ विनयपूर्वक बारह अंगों के पढ़ने वाले के जो मलय. व ४६, पृ. २२७)। बुद्धि उत्पन्न होती है उसका नाम वैनयिकी प्रज्ञा १जो विनयशीलता को ही स्वर्ग मोक्ष का कारण है। प्रथवा जो बडि पर के उपदेश से उत्पन्न होती मानते हैं वे वनयिकवारी कहलाते हैं। २ विनय से है उसे वैनयिकी प्रज्ञा जानना चाहिए। ६ विनय जो प्राचरण करते हैं अथवा विनय को ही प्रयोज- से अभिप्राय गुरु की शुश्रूषा (सेवा) का है, वह नीभूत मानते हैं वे वैनयिकवादी कहलाते हैं। ये जिसको कारण है अथवा उसकी प्रधानता से जो बनयिकवादी केवल विनय से हो स्वर्ग-मोक्ष की बुद्धि उत्पन्न होती है उसे वनयिको बुद्धि कहा प्राप्ति की इच्छा करते हैं, परन्तु ज्ञान और प्राचरण जाता है। के विना वह सम्भव नहीं है। इसी से वे मिथ्या- वनयिकी बुद्धि- देखो वनयिकी प्रज्ञा । दृष्टि माने गये हैं। वैभाविकभाव-तद्गुणाकारसंक्रान्तिर्भावो वैभावैनयिकश्रुत --१. वेणइयं भरहेरावद-विदेहसाहूणं विकश्चितः । तन्निमित्तं च तत्कर्म तथा सामर्थ्यदम्व-खेत्त-काल-भावे पडुच्च णाण-दसण-चारित्त- कारणम् ॥ (पंचाध्या. २-१०५)। तवोवचारियविणयं वण्णेदि। (षव. पु. ६, प. जीव के अपने गुणों के प्राकार में जो संक्रमण१८९)। २. पंचण्हं विणयाणं लक्खणं विहाणं फलं परिवर्तन या विकार होता है उसे वैभाविकभाव च वइणयियं परूवेदि। जयष. १, पृ. ११८)। कहा जाता है। ३. ज्ञान-दर्शन-तपश्चारित्रोपचारलक्षणपंचविधविनय- वैमानिक-१. विशेषेणात्मस्थान् सुकृतिनो माना प्ररूपकं वैनयिकम् । (श्रुतभ. टी. २४, पृ. १७९)। यन्तीति विमानानि, विमानेषु भवा वैमानिकाः । ४. चतुर्विधविनयप्रकाशकं वैनयिकम् । (त. वृत्ति (स. सि. ४-१६; त. वा. ४, १६, १)। २. स्वास्तु श्रुत. १-२०)। कृतिनो विशेषेण मानयन्तीति विमानानि, तेषु भवा १ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा जिसमें वैमानिकाः । वैमानिकनामकर्मोदये सति वैमानिकाः। भरत, ऐरावत और विदेहक्षेत्रगत साघुमों के ज्ञान, (त. श्लो. ४-१६)। ३. विशेषेण प्रात्मस्थान दर्शन, चारित्र, तप और प्रौपचारिक विनय का वर्णन पुण्यवतो जीवान मानयन्ति यानि तानि विमानानि, किया जाता है उसे वैनयिक अंगबाह्यश्रुत कहा विमानेषु भवाः ये ते वैमानिकाः । (त. वृत्ति श्रुत. जाता है। ४-१६)। वैनयिकी प्रज्ञा-१. वइणइकी विणएणं उप्पज्जदि १ जिनमें रहते हुए जीव अपने को विशेष रूप से बारसंगसुदजोग्ग। (ति. प. ४-१०२१) । २. भर- पुण्यशाली मानते हैं वे विमान और उनमें रहने नित्थरणसमत्था तिवग्गसूत्तत्थगहियपेयाला। उभ- वाले देव वैमानिक कहलाते हैं। पोलोगफलवई विणयसमुत्था हवइ बुद्धी। (उपदे. वैयावृत्त्य तप-१. गच्छे वेज्जावच्चं गिलाण-गुरुप. ४३) । ३. विणएण दुवालसंगाई पढंतस्सुप्पण्ण- बाल-बुड्ढ-सेहाणं । जहजोगं कादव्वं सगसत्तीए पयपण्णा वेणइया णाम, परोवदेसेण जादपण्णा वा। तेण ॥ (मूला. ४-५३, पृ. १४६); पाइरियादिसु (धव. पु. ६, पृ. ८२)। ४. विनयेन द्वादशांगानि पंचसु सबाल-बुड्ढाउलेसु गच्छेसु । वेज्जावच्चं वृत्तं पठतः समुत्पन्ना वैनयिकी। (चा. सा. पृ. ९७)। कादम्वं सव्वसत्तीए । गुणाधिए उबज्झाए तवस्सि ५. प्रागमा लिगिनो देवा धर्माः सर्वे सदा समाः। सिस्से य दुव्वले । साहुगणे कुले संघे समणुण्णे य इत्येषा कथ्यते बुद्धिः पुंसो वनयिकी जिनः ॥ चापदि ॥ (मूला. ५, १९२-१९३); सेज्जोग्गास(अमित. धा. २-८)। ६. विनयो गुरुशुश्रूषा, स णिसेज्जो तहोवहि-पडिलेहणाहि उवग्गहिदे । आहाच कारणमस्यास्तत्प्रधाना वा वनयिको। (उपदे. रोसह-वायण-विकिंचणंवंदणादीहिं ॥ (भ. प्रा. .३८) । ७. विनयो गृहशश्रषा, स कारण 'चणवत्तणादीसू') अद्धाणतेण-सावद-राय-णदीरोमस्या वनयिकी । (पाव, नि. मलय. यू. ९३८)। धणासिवे ओमे । वेज्जावच्चं वृत्तं संगह-सारक्खणो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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