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________________ वृत्तिपरिसंख्यान] रथ्या ग्रामार्धं ग्रामनियमश्च । अत्रैव द्रव्य क्षेत्र-कालभावाभिग्रहा अन्तर्भूताः । (योगशा. स्वो विव. ४ - ८६ ) । १२. भिक्षागोचरचित्रदातृचरणामत्रान्नसद्मादिगात् संकल्पाच्छ्रमणम्य वृत्तिपरिसंख्यानं तपोङ्गस्थितिः । नैराश्याय तदाचरेनिजरसासृग्मांससंशोषणद्वारेणेन्द्रियसंयमाय च परं निर्वेदमासे दि वान् ।। (अन. घ. ७-२६ ) । १३. आशा निरासार्थ मन्दिरादिप्रवृत्तिविधानं तद्विषये संकल्प-विकल्पचिन्तानियन्त्रणं वृत्तेर्भोजनप्रवृत्तेः परिसमन्तात्संख्यानं मर्यादा, गणनमिति यावत्, वृत्ति परिसंख्यानमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ६-१६) । १४. वृत्तिपरिसंख्यानं गणितगृहेषु भोजन वस्तुसंख्या वा । ( भावप्रा. टी. ७८) । १५ वृत्तेः प्रमाणं परिसंख्या वृत्तिपरिसंख्या । स्वकीयतपोविशेषेण रस- रुधिर- मांसशोषणद्वारेणेन्द्रियसंयमं परिपालयतो भिक्षार्थिनो मुनेः एकगृहसप्तगृहैकमार्गार्द्ध दायक भाजन- भोजनादिविषयः संकल्पो वृत्तिसंख्यानम् XXX। ( कार्तिके. टी. ४४५) । १६. त्रिः चतुः पञ्च षष्ठादिवस्तूनां संख्याशनम् । सद्मादिसंख्यया यद्वा वृत्तिसंख्या प्रचक्ष्यते ॥ (लाटोसं. ७-७७) । १ गृह के प्रमाण, दाता और पात्र सम्बन्ध में तथा भाजन के सम्बन्ध में प्रकार का नियम किया जाता है उसे वृत्तिपरि संख्यान तप कहा जाता है। जैसे मैं भोजन के लिए दो या तीन आदि घर जाऊंगा, यदि वृद्ध दाता पडिगाहन करेगा तो श्राहार लूँगा, अन्यथा नहीं; इसी प्रकार पात्र (चांदी या पीतल से निर्मित) और भोजन (अमुक प्रकार का धान्य श्रादि ) के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए । ११ जिसके प्राय से वर्तन - शरीर की स्थिति रहती है - उसका नाम वृत्ति है जो भैक्ष्य का बोधक है । घर व गली आदि का नियम करके उक्त भैक्ष्य का जो संकोच किया जाता है उसे बृत्तिसंक्षेप कहते हैं वृत्तिपरिसंख्यानातिचार- १. वृत्तिपरिसंख्यानस्यातिचाराः गृहसप्तकमेव प्रविशामि एकमेव पाटकम्, दरिद्रगृहमेकम् एवभूतेन दायकेन दायिकया वा दत्तं गृहीष्यामीति वा कृतसंकल्पः [ल्पस्य ] गृहसप्तकादिकादधिक प्रवेशः, पाटान्तरप्रवेशश्च परं भोजयामीत्यादिक: । ( भ. प्रा. विजयो. ४८७) । २. वृत्तिपरिसंख्यानस्यातिचारो गृहसप्तकमेव प्रवि I Jain Education International १०२४, जैन- लक्षणावली [वृष्येष्टरस शामि इत्येवमादिसंकल्पं कृतवतः परं भोजयामीत्यभिप्रायेण तदधिकप्रवेशादिकः । (भ. श्री. मूला. ४८७ ) । १ वृत्तिपरिसंख्यान तप में सात गृह, एक पाटक अथवा दरिद्र दाता आदि के घर के विषय में जो नियम · किया गया था उससे 'दूसरे को भोजन कराता हूं, इस विचार से अधिक गृह प्रादि में प्रवेश करने पर वह वृत्तिपरिसंख्यान के प्रतिचार से मलिन होता है । इत्यादि के जो अनेक वृत्तिसंक्षेप - देखो वृत्तिपरिसंख्यान । वृद्ध वृद्धः क्षीणेन्द्रियकर्मेन्द्रियकृत्यः चतुर्थी मवस्थां प्राप्तः सः संस्तारक दीक्षामेवार्हति न प्रव्रज्याम् | ( श्राचारवि. पृ ७४ ) । जिसकी बुद्धि इन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों का कार्य शिथिल पड़ गया है वह चौथी अवस्था को प्राप्त वृद्ध कहलाता है । वह संस्तारक दीक्षा के योग्य तो होता है, पर प्रव्रज्या -मुनि दीक्षा के योग्य नहीं होता । वृषभ - वृषेण धर्मेण भातीति वृषभः । अन. घ. Fat. at. 5-38) I जो वृष प्रर्थात् धर्म से शोभायमान होता है उसका नाम वृषभ है । यह जिनेन्द्र के १००८ नामों के अन्तर्गत है । वृषभानुजात - वृषभानुजात:, अत्र 'अनुजात' शब्दः सदृशवचनो वृषभस्यानुजातः सदृशो वृषभानुजातः, वृषभाकारेण चन्द्र-सूर्य-नक्षत्राणि यस्मिन् योगं प्रवतिष्ठन्ते स वृषभानुजात: । ( सूर्यप्र. मलय. वृ. १२, ७८ पृ. २३३ ) । जिस योग में चन्द्र, सूर्य और नक्षत्र वृषभ के प्राकार से श्रवस्थित रहते हैं उसका नाम वृषभानुजात योग है। यहां अनुजात का अर्थ सबुश है । वृष्य - इन्द्रियबलबद्ध नो माषविकारादिर्वृष्यः कथ्यते । वृषवत्कामी भवति येनाहारेण स वृष्यः । (त. वृत्ति श्रुत. ७-३५ ) । जो उड़द प्रादि इन्द्रियों के बल को वृद्धिगत करते हैं वे वृष्य कहलाते हैं, जिस प्रहार से मनुष्य बैल के समान कामी होता है उसका वृष्य यह सार्थक नाम है। वृष्येष्टरस - १. वृषे वृषभे साधवो वृष्याः येषु रसेषु भुक्तेषु पुमान् वृषभवत् उन्मत्तकामो भवति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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