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________________ विरति] १०१३, जैन-लक्षणावली [विरुद्ध राज्यातिक्रम प्रत्याख्यानोदये सति । (योगशा. स्वो. विव. १, वृ.अ. ४, पृ. ६६०)। १६, पृ. १११)। ३. तद्यथा यो निवृत्त: स्याद् लोभ के निग्रह कर देने का नाम विरागता है। यावतत्रसबधादिह । न निवृत्तस्तथा पंचस्थावरहिंसया विरागविचय-१. शरीरमशुचिर्भोगा [गाः] गही ॥ विरताविरताख्यः स स्यादेकस्मिन्ननेहसि। किंपाकफलपाकिनः । विरागबुद्धिरित्यादि विरागः लक्षणात त्रसहिंसायास्त्यागेऽणुव्रतधारकः ।। (लाटीसं. विचयं स्मृतम् । (ह. पु. ५६-४६)। २. विराग५, १२५-२६)। विचयं शरीरमिदमनित्यमपरित्राणं विनश्वरस्वभाव१ जो एक ही समय में हिंसा से विरत और मशुचिदोषाधिष्ठितं सप्तधातुमयं बहुमलपूर्णमनस्थावरहिंसा से अविरत रहता है, पर जिनदेव के वरतनिस्पंदितस्रोतोबिलमतिबीभत्समाधेयमशौचमपि ऊपर श्रद्धा रखता है वह विरताविरत श्रावक कह- पूतिगन्धिसम्यग्ज्ञानिजनवैराग्यहेतुभूतं नास्त्यत्र लाता है । २ प्रत्याख्यान कषाय का उदय होने पर किंचित्कमनीयमिन्द्रियसुखानि प्रमुखरसिकानि जीव विरताविरत होता है-वह स्थूल हिंसादि क्रियावसानविरसानि किंपाकपाकविपाकानि पराउ पापों से तो विरत होता है, पर गृह कार्यों में रत धीनान्यस्थानप्रचुरभंगुराणि यावद्यावदेषां रामणीयकं होने से सूक्ष्महिंसादि पापों का त्याग नहीं कर तावत्तावद्भोगिनां तृष्णाप्रसंगोऽनवस्थो यथाऽग्नेरिपाता। न्धनैर्जलनिघेः सरित्सहस्रण न तृप्तिस्तथा लोकविरति-१. विरमणं विरतिः। चारित्रमोहोप- स्याप्येतैर्न तृप्तिरुपशान्तिश्चैहिकामुत्रिकविनिपातशम-क्षय-क्षयोपशमनिमित्तोपशमकादिचारित्राविर्भात हेतवस्तानि देहिनः सुखानीति मन्यन्ते महादुःखकारस वात् विरमणं विरतिः। (त. वा. ७, १, २)। णान्यनात्मीयत्वादिष्टान्यप्यनिष्टानीति वैराग्यका२. समईहि विणा महव्वयाणुव्वया विरई। (धव. रणविशेषानुचिन्तनं षष्ठं धर्म्यम् ।। (चा. सा. पृ. पु. १४, पृ. १२)। ७७-७८)। १ चारित्रमोह के उपशम, क्षय और क्षयोपशम के १शरीर अपवित्र और भोग किपाकफल के समान निमित्त से जो प्रोपशमिक प्रादि (क्षायिक वक्षायो- विषैले हैं। इस प्रकार विषयों की प्रोर से जो पशमिक) चारित्र का प्राविर्भाव होता है उसे विरक्ति का विचार होता है उसे विरागविचय धर्मविरति कहते हैं। २ समितियों के बिना महाव्रतों ध्यान कहा जाता है। यह धर्मध्यान के दस भेदों और अणुव्रतों को विरति कहा जाता है। में छठा है। विरह - अन्तरमुच्छेदो विरहो परिणामतरगमणं विराधक-जो रयणतयमइनो मुत्तणं अप्पणो णत्थित्तगमणं अण्णभावव्ववहाणमिदि एयट्ठो। (धव. विशुद्धप्पा । चितेइ य परदव्वं विराहनो णिच्छयं भणियो । (प्रारा. सा. २०)। अन्तर, उच्छेद, विरह, परिणामान्तर गमन, नास्ति- जो रत्नत्रयस्वरूप अपनी विशुद्ध प्रात्मा को छोड़. स्वगमन और अन्य भाव व्यवधान ये सब समाना- कर पर द्रव्य का विचार करता है उसे विराधक र्थक हैं। कहा गया है। विराग-१. रागकारणभावात विषयेभ्यो विरञ्ज. विरुद्धराज्यातिक्रम-देखो द्विटराज्यलंघन । नं विरागः। चारित्रमहोदयाभावे तस्योपशमात् १. उचितन्यायादन्येन प्रकारेणादानं ग्रहणमतिक्रमः, क्षयात क्षयोपशमाद् वा शब्दादिभ्यो विरंजनं विराग विरुद्धं राज्यं विरुद्धराज्यम विरुद्ध राज्येऽतिक्रमः विइति व्यवसीयते । (त. वा. ७, १२, ४) । २. राग- रुद्धराज्यातिक्रमः । (स. सि. ७-२७) । २. उचिकारणाभावाद् विषयेभ्यो विरंजनं विरागः। (त. तादन्यथा दानग्रहणमतिकमः । उचितान्यायादन्येन श्लो. ७-१२) । ३. विराग:-विगतो रागो भावकर्म प्रकारेण दानग्रहणमतिक्रम इत्युच्यते । विरुद्धं राज्य यस्य । (रत्नक. टी. १-७)। विरुद्धराज्यम्, विरुद्धराज्ये अतिक्रमः विरुद्धराज्या१ राग के कारणों के अभाव में जो विषयों से तिक्रमः । तत्राल्पमूल्यलभ्यानि महार्धाणि द्रव्याणीति विरक्ति होती है उसका नाम विराग है। प्रयत्नः । (त. वा. ७, २७, ३)। ३. विरुद्धं राज्यं विरागता-विरागता लोभनिग्रहः । (प्राव. हरि. विरुद्धराज्यम्, उचितन्यायादन्येन प्रकारेणादानं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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