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________________ विभक्तिभिन्न] १०११, जैन-लक्षणावली [विभ्रमविक्षेपकिलिकिञ्चिता. विष्ठा, घु इति प्रश्रवणम, ते औषधिर्यस्यासौ विप्रौ- पर्याया नर-नारकादिकाः। (मालापप. पू. २१२)। षधिः । (प्राव. नि. मलय. वृ. ६६, पृ. ७८)। जीव को जो नर-नारक प्रादि अवस्थायें होती हैं मूत्र और मल के अवयव को विट कहा जाता है, उन्हें विभावद्रव्यव्यञ्जनपर्याय कहा जाता है । अन्य प्राचार्य 'विट्' शब्द से मल को ग्रहण करते विभावपर्याय-१. णर-णारय-तिरिय-सुरा पज्जाहैं, का अर्थ प्रश्रवण (मत्र) है, जिसके मल और या ते विभावमिदि भणिदा। (नि. सा. १५) । मूत्र दोनों ही प्रौषधिरूप हो जाते है वह विडौषधि २. विभावपर्यायाश्चतुविधा नर-नारकादिपर्याया या विौषधि ऋद्धि का धारक होता है। अथवा चतुरशीतिलक्षाश्च । (मालापप. पृ. २१२) । विभक्तिभिन्न-विभक्ति[विभिन्नं च यत्र वि- १ मनुष्य, नारक, तिर्यञ्च और देव ये विभावभक्तिव्यत्ययः, यथेष वक्ष इति वक्तव्ये एष वक्ष- पर्याय हैं। मित्याह । (प्राव. नि.मलय. व. १८२,प. ४८३)। विभाषा-सत्तेण सचिदत्थस्स विसेसिऊण भासा जहां विभक्ति का परिवर्तन होता है उसे विभक्ति- विभासा, विवरणं ति वुत्तं होइ । (जयष.--कसायभिन्न कहा जाता है। जैसे 'एष वृक्षः' इस प्रकार पा. पृ. ३४ टि.)। के प्रयोग के स्थान में 'एष वृक्षम्' ऐसा प्रयोग सूत्र के द्वारा सूचित अर्थ को विशेष रूप से व्याकरना। यहां प्रथमा विभक्ति के स्थान में द्वितीया ख्या करने को विभाषा कहते हैं। विभक्ति का उपयोग किया गया है। विभक्तिभिन्न विभ्यदोष-१. भयतो विभ्यतो गुर्वादिभ्यो यह ३२ सूत्रदोषों में १५वा सूत्रदोष है। विभ्यतो भयं प्राप्नुवतः परमार्थात्परस्य बालस्वविभङ्गज्ञान-१. विवरीय अोहिणाणं खोव- रूपस्य वंदनाभिधानं विभ्यद्दोषः। (मूला. वृ. ७, समियं च कम्मवीज च। वेभंगो त्ति य वुच्चइ १०७) । २. विभ्यत् संघात् कुलात् गच्छात् क्षेत्राद्वा समत्तणाणीहि समयम्हि ॥ (प्रा. पंचसं. १-१२०; निष्कासयिष्येऽहमिति भयाद् वन्दनम् । (योगशा. धव. पु. १, पृ. ३५६ उद्.; गो. जी. ३०५)। स्वो. विव. ३-१३०)। ३.xxx विभ्यत्ता २. मिथ्यात्वसमवेतमवधिज्ञानं विभङ्गज्ञानम् । बिभ्यतो गुरोः ॥ (अन. घ. ८-१०२); बिभ्यत्ता (धव. पु. १, पृ. ३५८)। ३. मिथ्यादर्शनोदयसह- नाम दोषः स्यात् । या किम् ? या क्रिया। कस्य ? चारितमवधिज्ञानमेव विभङ्गज्ञानम् । (पंचा. का. विभ्यतः पुंसः । कस्मात् ? गुरोराचार्यात् । बिभ्यतः अमृत. वृ. ४१)। ४. पर्याप्तस्यावधिज्ञानं मिथ्या- कर्म बिभ्यत्ता, बिभ्यदोष इत्यर्थः । (स्वो. टी. पृ. त्व-विषदूषितम् । विभङ्ग भण्यते सद्भिः क्षयोपशम- ६१२) । संभवम् ।। (अमित. श्रा. १-२३२) । ५. विपरीतो १ गरु प्रादि के भय से भयभीत साध परमार्थ से मंगःपरिच्छित्तिप्रकारो यस्य तद्विभङ्गम्, तच्च तत् परे बालस्वरूप अन्य मुनि को जो वन्दना करता है ज्ञानं च विभङ्गज्ञानम् । (प्रज्ञापना. मलय. वृ. उसके विभ्यत् नाम का वन्दनादोष होता है। २ यदि ३१२)। वन्दना न करूंगा तो संघ, कुल गच्छ अथवा क्षेत्र १ क्षयोपशमिक व कर्मागम के निमित्तभत विपरीत से निकाल दिया जाऊंगा; इस भय से वन्दना अवधिज्ञान को विभंगज्ञान कहा जाता है। २ जो करने पर विभ्यतवन्दन नामक वन्दनादोष का अवधिज्ञान मिथ्यात्व के साथ रहता है उसे विभंग. पात्र होता है। ज्ञान कहते हैं। ५ जिस अवविज्ञान के जानने का विभ्रम-विभ्रमोऽनेकान्तात्मकवस्तुनो नित्य-क्षणिप्रकार विपरीत होता है वह विभंग कहलाता है। कैकान्तादिरूपेण ग्रहणम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४२) । यह उसका निरुक्त लक्षण है। अनेकान्तात्मक वस्तु को सर्वथा नित्य या सर्वथा विभावगुणव्यञ्जनपर्याय- विभावगुणव्यञ्जन- क्षणिक रूप में जो ग्रहण किया जाता है, यह विभ्रम पर्याया मत्यादयः । (मालाप. पू. २१२) । का लक्षण है। जीव के जो मति-श्रुतादि ज्ञान हैं वे विभावगुण- विभ्रमविक्षेपकि लकिञ्चितादिवियुक्तत्व - व्यञ्जनपर्यायरूप हैं। विभ्रमो वक्तुन्तिमनस्कता, विक्षेपो वक्तुरेवाभिधेविभावद्रव्यव्यञ्जनपर्याय-विभावद्रव्यव्यञ्जन- यार्थ प्रत्यनासक्तता,किलिकिञ्चितं रोष-भय-लोभा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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