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________________ विद्या कार्य] १००२, जैन-लक्षणावली [विद्यानुप्रवाद की जाती है उसे विद्या कहते हैं। २ शास्त्र के द्वारा हरा, सयलविज्जायो छंडिऊण गहिदसंजमविज्जाहरा -पठन-पाठन प्रादि करके-जो आजीविका की वि होंति विज्जाहरा, विज्जाविसयविण्णाणस्स तत्थुजाती है उसे विद्यावृत्ति कहा जाता है। ३ निनको वलंभादो। पढिदविज्जाणुपवादा वि विज्जाहरा, जानकर प्राणी अपने हित को समझता है और तेसि पि विज्जाविसयविण्णाणुवलंभादो। (धव. पु. अहित से दूर रहता है उन्हें विद्या कहा जाता है। ६, पृ. ७७-७८)।। विद्याकर्यि-१. आलेख्य-गणितादिद्विसप्तति- १ कुल में-पिता के वंश में-विद्याओं के धारण कलावदाता विद्याकार्याः चतुःषष्टिगुणसम्पन्नाश्च । करने के सम्बन्ध से विद्याधर कहे जाते हैं। (त. वा. ३, ३६, २)। २. गणितादिद्विसप्तति- २ विद्याएं तीन प्रकार की होती हैं-जाति विद्या, कलाप्रवीणा विद्याकार्याः। (त. वृत्ति श्रुत. ३, कुलविद्या और तपविद्या। ये तीन प्रकार की विद्याएं जिनके हुआ करती हैं वे विद्याधर कहलाते १ जो लेखन व गणित प्रादि ७२ कलानों में निपुण हैं । विजया पर्वत पर रहने वाले मनुष्य भी विद्याव ६४ गुणों से सम्पन्न होते हैं वे विद्याकर्यि कह- घर (जन्मजात) होते हैं। समस्त विद्यानों को लाते हैं। छोड़कर संयम के धारक भी विद्याधर होते हैं, क्योंकि विद्याचारण-ये पुनविद्या वशतः समुत्पन्नगमना- वहां भी उनके विद्याविषयक ज्ञान पाया जाता है। गमनलब्धयस्ते विद्याचारणाः। (प्राव. नि. मलय. जिन्होंने विद्यानुवाद पूर्व को पढ़ा है वे भी विद्याधर वृ. ६६, पृ. ७८; प्रज्ञाप. मलय. व. २७३)। कहलाते हैं क्योंकि उनके भी विद्याविषयक ज्ञान जिनके विद्या के वश से जाने माने को लब्धि (ऋद्धि पाया जाता है। या शक्ति) उत्पन्न हो जाती है वे विद्याचारण कहन विद्याधर जिन-सिद्धविज्जाणं पेसणं जे ण लाते हैं। इच्छंति, केवलं धरंति चेव अण्णाणणि वित्तीए, ते विद्यादोष--१. विज्जा साधितसिद्धा तिस्से प्रासा- विज्जाहरजिणा यामधव.. विज्जाहरजिणा णाम । (धव. पु. ६, पृ. ७८)। पदाणकरणेहि। तस्से माहप्पेण य विज्जादोसा दु जो सिट की हुई विद्यानों के प्रेषण-अभीष्ट कार्य उप्पादो। (मला. ६-३८)। २. विद्यागः सिद्ध- की सिद्धि के लिए कहीं भेजने की इच्छा नहीं विद्यादिप्रभावादिप्रदर्शनम् ॥ (प्राचा. सा. ८, किया करते हैं या उन्हें किसी प्रकार का आदेश ४३)। ३. विद्या मंत्रेण चूर्णप्रयोगेण वा गृहिणं नहीं दिया करते हैं केवल उनके अज्ञान को दूर वशे स्थापयित्वा लब्धा (वसतिः) । (भ. प्रा. करने के लिए धारण ही किया करते हैं, वे विद्याविजयो. २३०)। ४. XXX विद्यामाहात्म्य घर जिन कहलाते हैं। दानतः । विद्या xxx मलोऽश्नतः ।। (अन. घ. विद्याधर श्रमण-अन्येऽधीतदशपूर्वा रोहिणीप्रज्ञ५-२५) । ५. सिद्धविद्या-साधितविद्यादीनां प्रदर्शनं प्यादिमहाविद्यादिभिरङगष्ठ-प्रसे निकाभिरल्पविद्याविद्योपजीवनम् । (भावप्रा. टी. ९६)। दिभिश्चोपनतानां भूयसीनामृद्धीनाम अवशगा विद्या१ विद्या के माहात्म्य को प्रगट करके व उसके देने की प्राशा देकर जो प्राहार प्राप्त किया जाता है वेगधारणात् विद्याधरश्रमणाः । (योगशा. स्वो. बिब. वह विद्या नामक उत्पादनदोष से दूषित होता है। १-८, पृ. ३८)। ३ मंत्र अथवा चूर्णप्रयोग के द्वारा गृहस्थ को अपने जो साधु दस पूर्वो को पढ़कर रोहिणी व प्रज्ञप्ति अनुकूल करके जो वसति प्राप्त की जाती है वह आदि महाविद्याओं से तथा अंगुष्ठप्रसेनिका आदि विद्या नामक उत्पादनदोष से दूषित होती है। क्षुद्र विद्यानों से प्राप्त बहुत सी ऋद्धियों के वशी. विद्याधर-१. कुले विद्याधरा जाता विद्याधरण- भूत नहीं होते हैं वे विद्याधर श्रमण कहलाते हैं। योगतः । (पद्मपु. ६-२११)। २. तिविहाम्रो वि- विद्यानुप्रवाद-१. समस्ता विद्या अष्टौ महानिज्जायो जादि-कुल-तवविज्जाभेएण | xxx मित्तानि तद्विषयो रज्जुराशिविधिः क्षेत्रं श्रेणी लोकएवमेदाओ तिविहानो विज्जाबो जेसि होंति ते प्रतिष्ठा संस्थानं समुद्धातश्च यत्र कथ्यते तद्विद्यानविज्जाहरा । तेण वेअड्ढणिवासिमणुप्रा वि विज्जा- वादम् । (धव. 'विद्यानुप्रवादम्')। (त. वा. १, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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