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________________ . . . लक्षणमहानिमित्त] १६५, जैन-लक्षणावली लिब्धि (मूला. वृ. ६-३०)। १ जिस ऋद्धि के प्रभाव से वायु की अपेक्षा भी १ हाथ व पांव के तल आदि में कमल एवं वज्र अतिशय लघु शरीर किया जा सकता है उसका प्रादि चिह्नों को देख कर जिस ऋद्धि के प्रभाव से नाम लघिमा है। ३ जिस शक्ति के निमित्त से तीनों काल सम्बन्धी सुखादि को जान लिया जाता मेरु के बराबर शरीर से मकड़ी के तन्तुनों पर से है उसका नाम लक्षणनिमित्त ऋद्धि है। जाया जा सकता है उसे लघिमा ऋद्धि कहते हैं। लक्षणमहानिमित्त --- सोत्थिय-णंदावत्त - सिरी- लघुकर्मा-लघु अल्पं कर्म सद्धर्मद्वेषनिमित्तं मिथ्यावच्छ-शंख-चक्कंकुस चंद-सूर - रयणायरादिलक्खणा- त्वं यस्य सोऽयं लघुकर्मा । (सा. घ. स्वो. ती. णि उर-ललाट-हत्थ-पादतलादिसू जहाकमेण अठ्ठ- १-६)। तरसद-च उसट्ठि-बत्तीसं दळूण तित्थयर-चक्कवट्टि- जिसके समीचीन धर्म से द्वेष का कारणभूत मिथ्याबलदेव-वासुदेवत्तावगमो लक्खणं णाम महाणिमित्तं। त्वादि कर्म का तीव्र उदय नहीं होता उसे लघुकर्मा (धव. पु. ६, पृ. ७३)। कहा जाता है। स्वस्तिक, नन्दावर्त, श्रीवृक्ष, शंख, चक्र, अंकुश, चन्द्र, लघुगति-अलाबुद्रुतार्कतूलादीनां लघुगतिः । (त. सूर्य और रत्नाकर आदि चिह्नों को उर (वक्षस्थल), वा. ५, २४, २६) । मस्तक एवं हाथ व पांव के तल प्रादि में एक सौ तूंबड़ी व वेगयुक्त पाक को रुई आदि की गति को पाठ, चौंसठ और बत्तीस संख्या में देखकर क्रम से लघुगति-शीघ्रतायुक्त --गति कहा जाता है। तीर्थकर, चक्रवर्ती तथा बलदेव और वासुदेव पद का लघत्व-देखो लघिमा । लघुत्वं वायोरपि लघुतरजान लेना; इसका नाम लक्षणमहानिमित्त है। शरीरता । (योगशा. स्वो. विव. १-८)। लक्षणसंवत्सर-लक्षणेन यथावस्थितेनोपेतः संव- शरीर का वायु से भी हलका होना, इसका नाम त्सरो लक्षणसंवत्सरः । (सूर्यप्र. मलय. वृ. १०, २०, लघुत्व ऋद्धि है। ५४, पृ. १५४)। लघुनामकर्म-एवं सेसफासाणं पि अत्थो वत्तव्वो जो संवत्सर यथावस्थित लक्षण से युक्त होता है (जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपोग्गलाणं लहुप्रभावो वह लक्षणसंवत्सर कहलाता है। संवत्सर के नक्षत्र- होदि तं लहुमणाम) । (धव. पु. ६, पृ. ७५) । संवत्सरादि पांच भेदों में यह चौथा है। जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गलों में लघुता लगण्डशायी-१ लग[गं] डसाई संकुचितकरणस्य होती है उसे लघुनामकर्म कहते हैं। शयनम् । (भ. प्रा. मूला. २२५) । २. लग [गं]- लतादोष-१. तथा लता इवांगानि चालयन् यः इसाई संकुचितगात्रस्य शयनम् । (भ. प्रा. मूला. तिष्ठति कायोत्सर्गेण तस्य लतादोषः। (मूला. वृ. २२५) । ७-१७१) । २. खरवातप्रकम्पिताया लताया इव १वक्र लकड़ी का नाम लगण्ड है, जो लगण्ड के कम्पनं लतादोषः । (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। समान शरीर को संकुचित करके सोता है उसे लग- ३.XXX मरुद्धतलतावच्चलतो लता ॥ (अन. ण्डशायी कहते हैं। ध. ८-११२)। लघिमा-देखो लघुत्व । १.xxx अणिलाउ १ जो लता के समान शरीर के अवयवों को चलाता लहुतरो लहिमा । (ति. प. ४-१०२७) । २. वायो- हा कायोत्सर्ग से स्थित होता है उसके लता नामक रपि लघुतरशरीरता लघिमा। (त. वा. ३, ३६, कायोत्सर्ग का दोष होता है। ३;चा. सा. ५.६७)। ३. मेरुपमाणसरीरेण मक्कड- लब्धि-१. लम्भनं लब्धिः । का पुनरसौ ? ज्ञानातंतहि परिसक्कणणिमित्तसत्ती लधिमा णाम । (धव. वरणक्षयोपशमविशेषः । (स. सि. २-१८); तपोपु. ६, पृ. ७५)। ४. लघिमा यल्लघुत्वाद्वायुवद् विशेषादृद्धिप्राप्तिर्लब्धिः । (स. सि. २-४७) । २. विचरति । (न्यायकु. ४, पृ. ११०) । ५. लघिमा इन्द्रियनिर्वृत्तिहेतुः क्षयोपशमविशेषो लब्धिः । यत्सं. यल्लघुत्वाद्वायुवत्सर्वत्र संचरति । (प्रा. योगिभ. टी. निधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिर्वृत्ति प्रति व्याप्रियते स ६, पृ. १९६)। ६. लघुशरीरविधानं लघिमा। (त. ज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषो लब्धिरिति विज्ञायते । वृत्ति श्रुत. ३-३३)। (त.वा. २, १८, १); तपोविशेविप्राप्तिलब्धिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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