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________________ रात्रिभुक्तिविरत] ६५६, जैन-लक्षणावली [रूपगता छोड़कर सन्तानप्राप्ति के निमित्त ही करता है तथा रुष्टवन्दन-रुष्टं क्रोधाध्मातस्य गुरोर्वन्दनमात्मना पर्व प्रादि के दिनों में उसका रात में भी परित्याग वा क्रुद्धेन वन्दनम् । (योगशा. स्वो. विव. ३, करता है। (चारित्रसार ग्रादि ग्रन्थों के अनसार १३०)। रात में ही स्त्री का सेवन करूंगा ऐसे स्त्रीसेवाव्रत क्रोध से सन्तप्त गरु की वन्दना करने पर अथवा के कारण रात्रिभक्तव्रती कहा जाता है तथा रत्न- स्वयं क्रोध को प्राप्त होते हुए वन्दना करने पर करण्डक प्रादि के अनुसार रात में चार प्रकार के रुष्ट नामक वन्दना का दोष होता है। आहार का परित्याग कर देने के कारण रात्रिभक्त- रूक्ष-१. रूक्षणाद् रूक्षः। (स. सि. ५-३३) । व्रती कहा जाता है)। २. रूक्षणाद् रूक्ष: । द्वितयनिमित्तवशाद् रूक्षणाद् रूक्ष विरत-देखो रात्रिभक्तविरत। इति व्यपदिश्यते । Xxx स्निग्धत्वं चिक्कणराष्ट्र-पशु-धान्य-हिरण्यसम्पदा राजते शोभते इति त्वलक्षणः पर्यायः, तद्विपरीतः परिणामो रूक्षत्वम् । राष्ट्रम् । (नीतिवा. १६-१, पृ. १६१)। (त. वा. ५, ३३, २) । ३. बहिरभ्यन्तरकारणद्वयपशु, धान्य और सुवर्णरूप सम्पत्ति से सुशोभित होने वशात् रूक्षपरिणामप्रादुर्भावात् रूक्षयति परुषो के कारण देश को राष्ट्र कहा जाता है । यह उसका भवति रूक्षः, रूक्षणं वा रूक्षः । (त. वृत्ति श्रत. निरुक्त लक्षण है। ५-३३)। रिक्कू-देखो किष्कु । xxx वेहत्थेहिं हवे २ बाह्य और अभ्यन्तर कारण के वश परुष पर्याय रिक्कू । (ति. प. १-११४) । होती है, स्निग्धता स्वरूप चिक्कणता से विपरीत दो हाथों का एक रिक्कू (किष्कु) होता है। अवस्था या गुण को रूक्ष कहा जाता है। रुजा-वात्त-पित्त-श्लेष्मणां वैषम्यजातकलेवरवि- रूक्षनामकर्म-एवं सेसफासाणं पि अत्थो वत्तव्वो पीडैव रुजा । (नि. सा. वृ. ६)। (जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपोग्गलाणं लुक्खभावो वात्त, पित्त और कफ इनकी विषमता से जो शरीर होदि तं लुक्खणामं)। (धव. पु. ६, पृ.७५)। में पीडा उत्पन्न होती है उसे रुजा (रोग) कहते हैं। जिसके उदय से शरीरगत पुद्गलों के रूखापन होता रुद्र-रौद्राणि कर्मजालानि शुक्लध्यानोग्रवह्निना। है उसे रूक्षनामकर्म कहते हैं । दग्धानि येन रुद्रेण तं तु रुद्रं नमाम्यहम् ॥ (प्राप्त- रूपकथा-अन्ध्रीप्रभृतीनामन्यतमाया रूपस्य यत्प्रस्व. ३०)। शंसादि सा रूपकथा । यथा-चन्द्रवक्त्रा सरोजाक्षी जिसने शुक्लध्यानरूप अग्नि के द्वारा रौद्र (भया- सद्गीः पीन-घनस्तनी। किं लाटी नो मता साऽस्य नक) कर्मसमूहों को जला डाला है उसका नाम देवानामपि दुर्लभा ॥ इति (स्थाना. अभय. वृ. रुद्र है। यह जिनदेव का नामान्तर है। २८२, पृ. २१०)। रुधिर-अन्तराय-रुधिरं स्वान्यदेहाभ्यां वहतश्च- प्रान्ध्र प्रादि विविध प्रान्तों में रहने वाली स्त्रियों तुरङ्गुलम् । उपलम्भोऽस्र-पूयादे:xxx॥ (अन. में से किसी एक के रूप प्रादि की जो प्रशंसा की ध. ५-४५)। जाती है उसे रूपकथा कहा जाता है। अपने अथवा अन्य के शरीर से चा रूपकदोष-रूपकदोषो नाम स्वरूपावयवव्यत्ययो रुधिर और पीव प्रादि के बहते हुए उपलब्ध होने यथा पर्वते पर्वतरूपावयवानामनभिधानं समुद्रावयपर रुधिर नामक भोजन का अन्तराय होता है। वानां चाभिधानमित्यादि । (प्राव. नि. मलय. वृ. रुधिरनामकर्म-एवं सेसवण्णाणं पि अत्थो वत्त- ८८४, पृ. ४८४)। व्वो (जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपोग्गलाणं रुहिर- स्वरूप के अवयवों में जो विपरीतता की जाती है वण्णो उप्पज्जदि तं रुहिरवण्णणामं)। (धव. पु. ६, उसका नाम रूपकदोष है। जैसे-पर्वत के वर्णन में पृ. ७४)। उसके अवयवों का निरूपण न करके समुद्र के प्रव. जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गलों का वर्ण । यवों का निरूपण न करना। रुधिर जैसा (लाल) होता है उसे रुधिरवर्णनाम- रूपगता-१. रूवगया तत्तिएहि चेव पदेहि कर्म कहते हैं। २०६८६२०० सीह-हय-हरिणादिरूपायारेण परि For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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