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________________ योगोढहनसदन] ६५२, जैन-लक्षणावली [रज जहां मन्दकषायो जन का निवास हो; ऐसा क्षेत्र योग योजन को पाठ से गुणित करने पर योजनपृथक्त्व के धारण में उत्तम माना जाता है। होता है। यह मनःपर्ययज्ञान के उत्कृष्ट क्षेत्र का योगोद्वहनसदन - चर्मास्थि-दन्त-नख-केश - गूथ- प्रमाण है। मूत्रापवित्रतारहितम् । अध उपरि च निश्छिद्रं निर- योनि-१. योनयो जोवोत्पत्तिस्थानानि । (मूला. वकर घृष्टमृष्टं च ॥ सूक्ष्माङ्गिवृन्दसंवासयोग्यभू. वृ. १२-३); यूयते भवपरिणत आत्मा यस्यामिति स्फोटवजितं परितः। रम्यमपरार्थरचितं योगोद्वहने योनिर्भवाधारः । (मूला. वृ. १२-५८) । २. यौति शुभं सदनम् ॥ (प्राचारदि. पृ. ८२ उद्.)। मिश्रीभवति औदारिकादिनोकर्मवर्गणापुद्गलैः सह जो निवास स्थान चमड़ा, हड्डी, दांत, नाखून, बाल, , संबद्धयते जीवो यस्यां स योनिः जीवोत्पत्तिस्थानम् । विष्ठा एवं मत्र प्रादि की अपवित्रता से रहित हो; (गो. जी. जी. प्र. ८१)। जहां नीचे-ऊपर छेद न हों, जो कचरा से रहित हो, १ जीवों के उत्पत्तिस्थानों को योनियां कहा मल से विहीन हो तथा जो सूक्ष्म जीवों के रहने जाता है।। योग्य छेदों आदि से रहित हो, ऐसा निवासस्थान यौवन-विशरारुनानारागपल्लवोल्लास-विलासोपयोगधारण के लिए उत्तम होता है। वनं यौवनम् । (गद्यचि. पृ. ५६); अविनयविहङ्गयोग्यता-१. अर्थग्रहणं योग्यतालक्षणम् । (लघीय. लीलावनं यौवनम् । (गद्यचि. पृ. ६४)। स्वो. वृ. ५)। २. स चात्मविशुद्धिविशेषो ज्ञाना- यौवन गिरते हुए अनेक पत्तों के उल्लास-विलास के वरण-वीर्यान्तरायक्षयोपशमभेदः स्वार्थप्रमितौ शक्ति- उपवन के समान है, अथवा वह प्रविनयरूप पक्षियों योग्यतेति च स्याद्वादवेदिभिरभिधीयते। (प्रमाणप. के क्रीडावन जैसा है पु. ५२); योग्यताविशेषः पुनः प्रत्यक्षस्येव स्ववि. रक्त गेय-गेयरागानुरक्तेन यत् गीयते तत् रक्तम् । षयज्ञानावरण-वीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेषःXX (रायप. मलय. वृ. १. १६२)। xI (प्रमाणप. पृ. ६७) । ३. स्वावरणक्षयोप- गाने योग्य गीत के स्वर में अनुरक्त पुरुष के द्वारा शमलक्षणयोग्यतया xxx । (परीक्षा. २-६)। जो गाया जाता है उसे रक्त गेय कहते हैं। ४. योग्यता नियतार्थग्रहणसामर्थ्यम् । (न्यायकु. ५, रचित-रचितं नाम संयतनिमित्तं कांस्यपात्रादौ पृ. १६५)। ५. का नाम योग्यता इति ? उच्यते मध्ये भक्तं निवेश्य पार्वेषु व्यञ्जनानि बहुविधानि -स्वावरणक्षयोपशमः । (न्यायदी. पृ. २७)। स्थाप्यन्ते। (व्यव. भा. मलय. वृ. ३-१६४, पृ. २ ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम ३५)। विशेषरूप मात्मा की शुद्धिविशेष का नाम योग्यता साधु के निमित्त कांसे मादि के पात्र में भोजन को है। यह योग्यता स्व और अर्थ के ग्रहण की शक्ति रखकर उसके पार्श्वभागों में जो बहत प्रकार के व्यञ्जनों को स्थापित किया जाता है, इसका नाम योजन-१. चउकोसेहिं जोयण xxx । (ति. रचित है। प. १-११६) । २. चतुर्गव्यूतं योजनम् । (त. वा. रचितकभोजी-- रचितकं नाम कांस्यपात्रादिषु ३, ३८, ६, पृ. २०८)। ३. अट्टहिं दंडसहस्सेहिं पटादिषु वा यदशनादि देयबद्धया वैविक्त्येन जोयणं । (धव. पु. १३, पृ. ३३६) । ४. अष्टौ दण्डसहस्राणि योजनं परिभाषितम। (इ. प. ७. तद् भुंक्ते इत्येवंशीलो रचितकभोजी। (व्यव. भा. ४६) । ५. Xxx दंडहिं असहासिहिं पावहि। पृ. ११६) । कांसे के पात्र प्रादि में अथवा पट (वस्त्र) आदि जोयणु Xxx। (म. पु. पुष्प. २-७, पृ. पर जो देने के विचार से भोजन स्थापित किया २४) । ६. चउगाउदेहि य तहा जोयण मेगं विणि जाता है उसका नाम रचितक है, उसका खाने वाला द्दिढें । (जं. दी. प. १३-३४)। १ चार कोसों का एक योजन होता है । रचितकभोजी कहलाता है। योजनपृथक्त्व-तं (जोयणं) अढहि गुणिदे जोय- रज--१. रजस्तु सर्वशुष्कः XXX शुष्क मात्रस्तु णपुधत्तं । (धव. पु. १३, पृ. ३३६) । रजः । (उत्तरा. चू. पृ. ७६)। २. बध्यमान च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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