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________________ योग] ६५०, जैन-लक्षणावली [योगसंक्रान्ति णभूतं जीवप्रदेशपरिस्पन्दनं योगः कथ्यते । (त. वृत्ति तथा समस्त विकल्पों के अभाव में-निविकल्प : शरीर-वचन-मानसानां यत्कर्म क्रिया समाधि में-योजित करता है वह योगभक्ति से स योग: । (त. वृत्ति श्रुत. ६-१); काय-वाङ्मन- युक्त होता है, अन्य के-राग-द्वेषादि से सहित होकर सा यत्कर्म स योग उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७, नाना विकल्पों से व्याप्त जीव के-भला वह योग ३३)। ३३. योगः स्यादात्मपदेशप्रचयचलनता कैसे सम्भव है ? असम्भव है। वाङ्मनःकायमार्गः ॥ (अध्यात्मक. ४-२)। योगमुद्रा-१. अन्नुन्नंतरिअंगुलिको सागरेहि १ जो प्रात्मपरिणाम विपरीत अभिप्राय को छोड़कर दोहिं हत्थेहिं । पिट्टोवरि कुप्परसंठिएहि तह जोगमुद्द जिनप्ररूपित तत्त्वों में प्रात्मा को योजित (संलग्न) त्ति ॥ (चैत्यवन्दन भा. १५) । २. उभयक रजोडकरता है उसे योग कहते हैं। २ मन, वचन और नेन परस्परमध्यप्रविष्टांगलिभिः कृत्वा पद्मकोशाकाय के प्राश्रय से जो प्रात्मप्रदेशों में परिस्पन्दन काराभ्यां द्वाभ्यां हस्ताभ्यां तथोदरस्योपरि कुहणिहोता है उसे योग कहा जाता है। ४ वचन, मन । कया व्यवस्थिताभ्यां योगो हस्तयोर्योजनविशेषस्तऔर शरीर वर्गणा के निमित्त से जो प्रात्मप्रदेशों प्रवाना मुद्रा योगमुद्रा भवतीति गम्यम् । (चैत्यमें परिस्पन्दन होता है उसका नाम योग है। वन्दन भा. अवचूरि १५)। सम्यक् प्रणिधान-एकाग्रचिन्तानिरोध-रूप समा- १ परस्पर अंगुलियों को अन्तरित करके कमलकोश घि-को योग कहते हैं । ८ पंचाग्नि प्रादि के अनु- के आकारयुक्त दोनों हाथों को कुहनियों को पेट के मध्य में स्थित करने पर योगमद्रा होती है। न्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न हई पर्याय से जो योगवक्रता-१. काय-वाङ्मनसा कौटिल्येन वृत्तिप्रात्मा का सम्बन्ध होता है उसका नाम योग है। र्योगवऋता। XXX तेषां (काय-वाङ्मनसां) , प्राण, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति कुटिलतायोगवक्रता इत्युच्यते, अनार्जवं [व-] प्रणिऔर सामर्थ्य प्रादि शब्दों से कहा जाता है। अथवा धानमिति यावत् । (त. वा. ६, २२, १)। २. योगः जीव इसे चूंकि वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न xxxशक्तिरूप प्रात्मन: करणविशेषः काय-वाङ्पर्याय से योजित करता है, इसीलिए उसे योग कहा मनोलक्षणस्तद्गता कौटिल्यप्रवृत्तिः स्वयमेव योगजाता है। २६ सौभाग्य अथवा दौर्भाग्य के करने वक्रताऽनार्जवप्रणिधानं मायाचित्तं योगविपर्यास इत्यवाले पादप्रलेपादि को योग कहा जाता है। यह नर्थान्तरम् । (त. वा. सिद्ध. वृ. ६-२१)। ३. योगसाधु के आहारविषयक १६ उत्पादन दोषों में स्य वक्रता कौटिल्यं योगवक्रता-कायेनान्यत्करोति १५वां है। वचसाऽन्यद ब्रवीति मनसान्यच्चिन्तयति योगवक्रता। योगकृष्टि - पूर्वापूर्वस्पर्धकस्वरूपेणेष्टकापंक्तिसं- (त. वृत्ति श्रुत. ६-२२)। स्थानसंस्थितं योगमुपसंहृत्य सूक्ष्म-सूक्ष्माणि खण्डा- १ शरीर, वचन और मन की कुटिलतापूर्ण प्रवृत्ति नि निर्वर्तयति, ताम्रो किट्टीग्रो णाम वुच्चंति । (जय- को योगवक्रता कहा जाता है। घ.-धव. पु. १०, पृ. ३२३, टि. ३)। योगसत्य-योगसत्यं योगानां मनःप्रभृतीनामविपूर्व और अपूर्व स्पर्धकों स्वरूप से ईंटों की पंक्ति के तथत्वम् । (समवा. अभय. व. २७)। प्राकार में स्थित योग का संकोच करके जो उसके __मन प्रादि योगों की यथार्थता का नाम योगसत्य है। सूक्ष्म-सूक्ष्म खण्ड किए जाते हैं उन्हें कृष्टियां कहा योगसंक्रान्ति-१. काययोगं त्यक्त्वा योगान्तरं जाता है। गृह्णाति, योगान्तरं त्यक्त्वा काययोगमिति योगसंयोगभक्ति-रायादीपरिहारे अप्पाणं जो दु जंजदे क्रान्तिः । (स. सि. ९-४४; त. वा. ६-४४) । साह। सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य कहं हवे २. काययोगाद्योगान्तरे ततोऽपि काययोगे संक्रपणं जोगो।। सव्ववियप्पाभावे अप्पाणं जो दु जंजदे योगसंक्रान्तिः। (त. श्लो. ९-४४)। ३. कायसाहू। सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य किह हवे योगोपयुक्तध्यानस्य वाग्योगसंचारः, वाग्योगोपयुक्त. जोगो। (नि. सा. १३७-३८)। ध्यानस्य वा मनोयोगसञ्चारः [योगसंक्रान्ति:] । जो साधु अपने को राग-द्वषादि के परित्याग में (त. भा. सिद्ध. व. ९-४६)। ४. स्यादियं योग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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