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________________ मिश्रिकागति] १२६, जैन-लक्षणावली मुक्ताशुक्तिमुद्रा] बाह्य कष्टतपश्चारिषु च यथायोग्यं क्रियमाणानुकम्मा [सेणीण] भत्तिजुत्ताणं ॥ वररयणमउडधारी सेवयमिश्रानुकम्पोच्यते । (भ. प्रा. मूला. १८३४)। माणाण वत्ति तह अह्र । देता हवेदि राजा जिद१ जो महापापस्वरूप हिंसादि से निवृत्त हैं, सन्तोष सत्तू समरसंघ? ॥ (ति. प. १, ४१-४२) । व वैराग्य में निरत हैं। दिग्विरति, धेशविरति व २. अष्टादशसंख्यानां श्रेणीनामधिपतिविनम्राणाम् । अनर्थदण्डविरति का परिपालन करते हैं। तीव्र दोष राजा स्यान्मकटघरः कल्पतरुः सेवमानानाम् ।। (घव. मत भोग व उपभोग से निवृत्त होकर १, पृ. ५७ उद.)। ३. इदि अटारससे ढीणहियो शेष भोग का प्रमाण कर चुके हैं, अन्तःकरण में राजो हवेज्ज मउडधरो। (त्रि. सा. ६८४)। पाप से भयभीत हैं, विशिष्ट देश व काल के अनुः १ जो भक्तियुक्त घोड़ा व हाथी प्रादि अठारह सार सर्व सावध से रहित हैं, तथा पर्वदिनों में सेनामों या श्रेणियों का स्वामी होता हुमा सेवक समस्त प्रारम्भ को छोड़कर उपवास को किया जनों को वत्ति व अर्थ को देता है तथा युद्ध में करते हैं; वे संयतासंयत कहलाते हैं। उनके विषय शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है वह मुकुट का में की जाने वाली दया को मिधानुकंपा (संयता. धारक राजा कहलाता है। संयतानुकम्पा) कहा जाता है। मुक्त-१. निरस्तद्रव्य-भावबन्धा मुक्ताः। XX मिश्रिकागति-मिश्रिका (गतिः) प्रयोग-विस्रसा- X स (बन्धः) उभयोऽपि निरस्तो यः ते मुक्ता:। भ्यामुभयपरिणामरूपत्वाज्जीवप्रयोगसहचरिताचेतन- (त. वा. २, १०, २)। २. सयलकम्मवज्जियो द्रव्यपरिणामात् कुम्भ-स्तम्भादिविषया, कुम्भादयो अणंतणाण-दसण-वीरिय-चरण-सुह- सम्मत्तादिगुणगहि ते न तादृशा परिणामेनोत्पत्तुं स्वत एव शक्ताः, णाइण्णो णिरामो णिरंजणो णिच्चो कयकिच्चो कुम्भकारादिसाचिव्यादुपजायन्ते । (त. भा. सिद्ध. मुत्तो णाम । (धव. पु. १६, पृ. ३३८) । ३. मुक्तावृ.५-२२, पृ. ३५६)। स्तु ज्ञानावरणादिकर्मभिः समस्तैर्मुक्ता एकसमयजीव के प्रयोग से सहकृत जो प्रचेतन द्रव्य के परि- सिद्धादयः। (त. भा. सिद्ध. वृ. १-५, पृ. ४६); णाम से कुम्भ और स्तम्भ प्रादि की गति होती है मच्यन्ते स्म [संसारात] मक्ताः। (त. भा. सिद्ध. वह प्रयोग और स्वभाव दोनों के प्राश्रय से होने के व. २-१०): सकलकर्मविमक्त प्रात्मा मुक्तः । कारण मिश्रिकागति कहलाती है। कारण यह है (त. भा. सिद्ध. वृ. १०-३)। ४. लोयग्गसिहरकि कुम्भ आदि उस प्रकार के परिणाम से (स्व- वासी केवलणाणेण मुणियतइलोया। असरीरा गइभावतः) स्वयं उत्पन्न होने में असमर्थ होते हए रहिया सुणिच्चला सुद्धभावट्ठा॥ (भावसं. दे. ३)। कुम्भकार आदि के प्रयोग की अपेक्षा रखा करते हैं। ५. तत्र क्षताष्टकर्माणः प्राप्ताष्टगुणसम्पदः । त्रिलोकमीमांसा -१. मातुमिच्छा मीमांसा प्रमाणजिज्ञा- वेदिनो मुक्तास्त्रिलोकाग्रनिवासिनः ॥ (अमित. श्रा. सा । (प्राव. नि. हरि. वृ. २३, पृ. २६; नन्दी. ३-३)। ६. तस्मान्निर्मूलनिर्मुक्तकर्मबन्धोऽतिनिर्महरि. वृ. पृ. ११७) । २. मीमांस्यते विचार्यते अव- लः । व्यावृत्तानुगताकारोऽनन्तमानन्द-दृग्बलः ॥ गहीतोऽर्थो विशेषरूपेण अनया इति मीमांसा । (धव. निःशेषद्रव्य-पर्यायसाक्षात्करणभूषणः । जीवो मुक्तिपु. १३, पृ. २४२)। ३. मीमांसा सद्विचाररूपा पदं प्राप्तः प्रपत्तव्यो मनीषिभिः ॥ (प्रमाणनि. प्र. बोधानन्तरभाविनी तत्त्वविषयव । (षोडश. ७. ७४) । ७.xxx मुक्तः कृत्स्नैनसोऽत्ययात् । हेमोपलो मलोन्मुक्त्या हेम स्यादमलं यथा ।। (प्राचा. १ मान (प्रमाण) के लिए जो इच्छा होती है उसका सा. ३-१०)। ८. मुक्तः बाह्याभ्यन्तरग्रन्थात् कर्मनाम मीमांसा है। २ अवग्रह से गृहीत अर्थ का जो बन्धनाद्वा। (औपपा. अभय. वृ. १०, पृ. १५)। विशेषरूप से विचार किया जाता है उसे मीमांसा १ जो जीव द्रव्यबन्ध और भावबन्ध दोनों से रहित कहते हैं। यह ईहा ज्ञान का एक नामान्तर है। हो चुके हैं वे मुक्त कहलाते हैं । ३ जो समस्त ज्ञाना३ ज्ञान के पश्चात् जो तत्त्वविषयक विचार होता है वरणादि कर्मों से छुटकारा पा गये हैं उन्हें मुक्त उसे मीमांसा कहा जाता है । कहते हैं। मुकुटधरराजा -१. अट्ठारसमेत्ताणं सामी सेणाण मुक्ताशुक्तिमुद्रा-१. किञ्चित् गभिती हस्ती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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