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________________ [मिथ्यादृष्टिसंस्तव पिथ्यादृष्टिगुणस्थान] ६२०, जैन-लक्षणावली (जीवाजी. मलय. वृ. १३, पृ. १८) । २०. मिथ्या दृष्टिमबिभ्रतः। मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं यदुक्तं पूर्वविपर्यस्ता दृष्टिर्जीवाजीवादिवस्तुप्रतिपत्तिर्यस्य भ- सूरिभिः ॥ (लोकप्र. ३, ११३४-३५) । क्षितधत्तूरपुरुषस्य सिते पीतप्रतिपत्तिवत् स मिथ्या- १ मिथ्यात्व के उदय से जीव के जो प्रौदयिक भाव दृष्टिः । (पंचसं. मलय. वृ. १-१५; कर्मस्त. गो. होता है उससे मिथ्यावृष्टि गुणस्थान होता है । वृ. २, पृ. ७०; कर्मस्त. दे. स्वो. व. २, पृ. ६७)। ५ जिनोपदिष्ट तत्त्वों के विषय में श्रद्धान न करना, २१. तत्त्वार्थविपरीतरुचिमिथ्यादृष्टिः। (त. वृत्ति । विपरीत श्रद्धान करना, अन्यथा कथन करना, सन्देह श्रुत. ६-१)। २२. तत्र मिथ्या विपर्यस्ता जिन- करना तथा उनके विषय में अनादर करना; इसका प्रणीतवस्तुषु । दृष्टियंस्य प्रतिपत्तिः स मिथ्यादृष्टि- नाम मिथ्यात्व है। उसके होने पर मिथ्यादृष्टि रुच्यते ॥ (लोकप्र. ३-११३४)। २३. यस्यास्ति गुणस्थान होता है। कांक्षितो भावो ननं मिथ्यादगस्ति सः। (लाटीसं. मिथ्यादष्टिप्रशंसा-१. मनसा ४-७४)। चारित्र-गुणोद्भावनं प्रशंसा। (स. सि. ७-२३; १ मिथ्यात्व कर्म के उदय से जीव मिथ्यादृष्टि त. वा. ७, २३, १)। २. मिथ्या जिनागमविपहोता है। ३ जो साधु पर पदार्थों में अनुरक्त रहता रीता दृष्टिदर्शनं येषां ते मिथ्यादृष्ट यस्तेषां प्रशंसनं है वह मिथ्यादष्टि होता है। जो भय, लज्जा या प्रशंसा। (योगशा. स्वो. विव.२-१७, पृ. १८६)। गारव से कुदेव, कुधर्म और कुगुरु की वन्दना करता ३. मिथ्यादृष्टीनां मनसा ज्ञान-चारित्रगुणोद्भावनं है उसे मिथ्यादृष्टि समझना चाहिए। १५ जिनकी प्रशंसा । (त. वृत्ति श्रुत. ७-२३)।। वृष्टि मिथ्यास्वमोहनीय कर्म के उदय से जिनप्रणीत १ मन से मिथ्यावृष्टि के ज्ञान और चारित्र गुणों पदार्चसमूह के श्रद्धान से रहित होती है तथा के कीर्तन का नाम मिथ्यादृष्टिप्रशंसा है। यह जिनको जिनवाणी नहीं रचती है वे मिथ्यादृष्टि सम्यग्दर्शन का एक प्रतीचार है। २ जिनकी दृष्टि कहलाते हैं। जिनागम से विपरीत होती है वे मिथ्यादृष्टि कहमिच्यादृष्टि गुणस्थान- देखो मिथ्यादृष्टि । लाते हैं, ऐसे मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा को मिथ्या१. मिच्छत्तस्सुदएण य जीवे संभवइ उदइओ भावो। दृष्टिप्रशंसा कहते हैं। तेष य मिच्छादिट्ठी ठाणं पावेइ सो तइया ॥ (भाव- मिथ्यादृष्टिश्रुत-देखो मिथ्याश्रुत । सं. दे. १२) । २. सहजशुद्धकेवलज्ञान-दर्शन- मिथ्यादृष्टिसंस्तव- १. (मिथ्यादृष्टेः) भूतारूपाखण्डकप्रत्यक्षप्रतिभासमयनिजपरमात्मप्रतिषड्- भूतगुणोद्भावनवचनं संस्तवः। (स. सि. ७-२३, द्रव्य-पंचास्तिकाय-सप्ततत्त्व-नवपदार्थेषु मूढत्रयादि- त. वा. ७, २३, १)। २. तैमिथ्यादृष्टिभिरेकत्र पंचविंशतिमलरहितं वीतरागसर्वज्ञप्रणीतनयविभागेन संवासात्परस्परालापादिजनितः परिचयः संस्तवः । यस्य श्रद्धानं नास्ति स मिथ्यादृष्टिः। (बृ. द्रव्यसं., एकत्र वासे हि तत्प्रक्रियाश्रवणात् ताक्रियादर्शनाच्च दौ. १३)। ३. तस्य मिथ्यादृष्टेः गुणस्थानं ज्ञाना- दृढसम्यक्त्ववतोऽपि दृष्टिभेद: सम्भाव्यते, किमुत दिगुणानामविशुद्धिप्रकर्ष-विशुद्धयपकर्षवतः स्वरूपवि- मन्दबुद्धेर्नवधर्मस्य इति संस्तवोऽपि सम्यक्त्वदूषणम् । शेषो मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् । (कर्मस्त. दे. स्वो. वृ. (योगशा. स्वो. वि. २-१७, पृ. १८६) । ३. विद्य. ६७)। ४. तत्राद्यं यद् गुणस्थानं मिथ्यात्वं नाम मानानामविद्यमानानां मिथ्यादृष्टेर्गुणानां वचनेन जायते । पंचानां दृष्टिमोहाख्यकर्मणामुदयोद्भवम् ।। प्रकटनं संस्तव उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७-२३)। (भावसं. वाम. २५)। ५. जिनादिष्टेषु तत्त्वेषु न १ मिथ्यादृष्टि के विद्यमान व अविद्यमान गुणों का श्रद्धानं भवेदिह । श्रद्धानं चापि यन्मिथ्याऽन्यथा या वचन से कीर्तन करना, इसे मिथ्यादृष्टिसंस्तव च प्ररूपणा ॥ सन्देहकरणं यच्च यदेतेष्वप्यनादरः। कहते हैं। यह सम्यक्त्व का एक प्रतीचार है। तन्मिथ्या पञ्चधा तस्मिन् दृग्मिथ्यादृष्टिको गुणः ।। २ मिथ्यादृष्टियों के साथ एक स्थान पर रहने से (सं. प्रकृतिवि. जयति. ५-६)। ६. तत्र मिथ्या जो परस्पर में वार्तालाप आदि के द्वारा परिचय विपर्वस्ता, जिनप्रणीतवस्तुषु । दृष्टिर्यस्य प्रतिपत्तिः उत्पन्न होता है उसे मिथ्याष्टिसंस्तव कहते हैं । स भिथ्यादष्टिरुच्यते ॥ यत्त तस्य गुणस्थानं सम्य- यह सम्यक्त्व का अतिचार है। इसका कारण यह है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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