SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ जैन लक्षणावली ज्ञाता के अभिप्रायस्वरूप नय के लक्षण का स्पष्टीकरण है। इन्हीं प्रकलंकदेव ने अपने तत्त्वार्थवातिक (१,६,३) में नय के लक्षण में कहा है कि जो अवयव को विषय करता है उसका नाम नय है। यह लधीयस्त्रय की ६२वीं कारिका में निर्दिष्ट 'विकलसंकथा' का ही स्पष्टीकरण है। यहीं पर प्रागे (१,६, ६) उन्होंने सम्यक एकान्त को नय का लक्षण कहा है। हेतूविशेष के सामर्थ्य की अपेक्षा रखकर जो प्रमाण के द्वारा प्ररूपित पदार्थ के एक देश का कथन किया करता है उसे सम्यक् एकान्त कहा जाता है। यहीं पर मागे (१,३३, १) प्रकारान्तर से पुन: यह कहा गया है कि जो प्रमाण से प्रकाशित अस्तित्वनास्तित्वादिरूप अनन्तधर्मात्मक जीवादि पदार्थों के विशेषों (पर्यायों) का निरूपण करने वाला है उसे नय कहा जाता है। उत्तरा. चूणि (पृ. ६) और प्राव. नियुक्ति की हरिभद्र विरचित वृत्ति (७६) में वस्तु की पर्यायों के अधिगम को नय का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है। दोनों में प्रायः शब्दशः समानता है। अनुयो. की हरिभद्रविरचित वृत्ति (पृ. २७ व १६) में अनन्तधर्मात्मक वस्तु के एक अंश के ग्रहण करने को नय कहा गया है । इसी वृत्ति में पागे (पृ, १०५) प्रकारान्तर से यह भी निर्दिष्ट किया गया है कि जो अनेक धर्मात्मक वस्तु को विवक्षित किसी एक धर्म से ले जाता है उसे नय कहते हैं। घवला (पु. १, पृ. ८३ व पु. ६, पृ. १६४) में कहा गया है कि प्रमाण से परिगृहीत वस्तु के एक देश में जो वस्तु का निश्चय होता है उसे नय कहा जाता है। प्रागे इस धवला (पु. ६, पृ. १६२ व १६३) में लघीयस्त्रय की ५२वीं कारिका के अनुसार ज्ञाता के अभिप्राय को नय का लक्षण बतलाते हुए उसके स्पष्टीकरण में कहा गया है कि प्रमाण से परिगृहीत पदार्थ के एक देश में जो वस्तु का अध्यवसाय होता है, इसे नय जानना चाहिए । लघीय. की प्रकृत कारिकागत 'युक्तितोऽर्थपरिग्रहः' इसे हृदयंगम कर कहा गया है कि युक्ति का अर्थ प्रमाण है, इस प्रमाण से जो अर्थ का परिग्रह होता है-द्रव्य और पर्याय में से विवक्षा के अनुसार जो किसी एक का वस्तु के रूप में ग्रहण होता है उसे नय कहते हैं । यहीं पर आगे (पु. ६, पृ. १६५-६६) पूज्यपाद भट्टारक द्वारा निदिष्ट लक्षण को उद्धृत करते हुए यह कहा गया है कि प्रमाण से प्रकाशित अनेकधर्मात्मक पदार्थों के विशेषों (पर्यायों) की जो प्ररूपणा किया करता है उसे नय कहते हैं। इसे वीरसेनाचार्य ने धवला में जहां पज्यपाद के अभिप्रायानसार सामान्य नय का लक्षण बतलाया है वहीं उन्होंने उसे जयधवला (१,पृ. २१०) में तत्त्वार्थभ वा. १, ३३,१) वाक्यनय का लक्षण कहा है। त. वा. में उसकी उत्थानिका में उसे सामान्य नय का ही लक्षण निर्दिष्ट किया गया है-तत्र सामान्यनयलक्षण मुच्यते । इसी पू. ९ में प्रागे (पृ. १६६) प्रभाचन्द्र भट्टारक के द्वारा निर्दिष्ट 'प्रमाणव्यपाश्रय' इत्यादि वाक्य को उद्धत करते हुए कहा गया है कि प्रमाण के प्राश्रय से होने वाले परिणामविकल्पों के अभिप्रायविशेषों के वशीभूत पदार्थगत विशेषों के निरूपण में जो प्रयोग अथवा प्रयोक्ता समर्थ होता है उसे नय समझना चाहिए। प्रागे (पृ. १६७) प्रा. पूज्यपाद विरचित सारसंग्रहगत 'अनन्तपर्यायात्मकस्य' इत्यादि वाक्य को उद्धृत करते हुए तदनुसार यह कहा गया है कि अनन्तपर्यायस्वरूप बस्तु की उन पर्यायों में से किसी एक पर्याय को ग्रहण करते समय उत्तम हेतु की अपेक्षा करके जो निर्दोष प्रयोग किया जाता है उसका नाम नय है। जयघवला (१, पृ. २१०) में पूर्वोक्त धवला (पु.६, पृ. १६६-६७) के ही अभिप्राय को व्वक्त करते हुए जहां धवल सारसंग्रहोक्त नय के उस लक्षण को विशेषरूप में वाक्यनय का लक्षण कहा गया है। इसी प्रसार प्रभाचन्द्र के द्वारा निर्दिष्ट पूर्वोक्त नय के लक्षण को धवला में जहां सामान्य से नय का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है वहां जयधवला में उसे प्रभाचन्द्रीय वाक्यनय का लक्षण कहा गया है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (१,६, ४) और नयविवरण (४) में स्वार्थ के-प्रमाण के विषयभूत पदार्थ के-एक देश के निर्णय को नय का लक्षण प्रगट किया गया है। यहां मागे (१, ३३, २) नय के लक्षण में जो यह कहा गया है कि स्याद्वाद से विभक्त अर्थविशेष का जो ब्यंजक होता है वह नय कहलाता है, यह शब्दशः प्राप्तमीमांसा १०६ का अनुसरण है। यहां प्रागे (१, ३३, ६ व नवि. १८) यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy