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________________ मालवयोजन ] और उपादेय पदार्थों को मानते हैं-जानते हैं - वे मानव कहलाते हैं । मालवयोजन- चतुर्गव्यूतिभिर्मानवयोजनं भवति । (त. वृत्ति श्रुत. ३ - ३८ ) । चार गव्यूतियों का एक मानव ( उत्सेध) योजन होता है । [मानान्यत्व मन की प्रसन्नता, स्वभावतः शान्त परिणति, मौन, प्रात्मदमन और परिणामों को निर्मलता; इसे मानस तप कहा जाता है । मानस मणम्मि भवं लिंगं माणसं, अधवा मणो चेव माणसो । (घव. पु. १३, पृ. ३३२); माणसं पोइदियं मणोवग्गणखंघ णिव्वत्तिदं ××× । ( धव. पु. १३, पृ. ३४१ ) । मानस ध्यान - मानसं त्वेकस्मिन् वस्तुनि चित्तस्यैकाग्रता । (बृहत्क. भा. क्षे. वृ. १६४२ ) । एक वस्तुविषयक मन की एकाग्रता को मानस ध्यान कहा जाता है । मानसासमीक्ष्याधिकरण --- देखो असमीक्ष्याधिकरण | मानसं (समीक्ष्याधिकरणं) परानर्थककाव्यादिचिन्तनम् । (त. वा. ७, ३२, ५, चा. सा. पृ. १० ) । मनवर्गणा से रचित नोइन्द्रिय ( मन ) का नाम मानस है । मानस श्रविनय -- यत्किञ्चिल्लब्ध्वा गुरवस्तुष्यन्ति लघुप्रायचित्तदायिनो भविष्यन्तीति स्वबुद्धया असद्दोपाध्यारोपणान्मानसोऽविनयः (मूला. 'रोपणाद्धि मानसो विनयः) । ( भ. प्रा. विजयो. व मूला. ५६४ ) । दूसरों के निरर्थक काव्य श्रादि के चिन्तन को मानस श्रमीक्ष्याधिकरण कहा जाता है । मानसिक अर्थ - मनोवग्गणाए णिव्वत्तियं हिययपउम मणो णाम । मणोजणिदणाणं वा मणो वुच्चदे | मणसा चितिदट्ठा माणसिया । ( धव. पु. १३, पृ. ३५० ) । मनवर्गणा से निर्मित हृदय कसल का नाम मन है, अथवा मन से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को मन कहा जाता है। इस प्रकार के मन से जिन पदार्थों का चिन्तन किया जाता है वे मानसिक अर्थ कहलाते हैं । कुछ भी पाकर गुरु सन्तुष्ट होंगे व लघु ( साधारण) प्रायश्चित्त देंगे, इस प्रकार अपनी बुद्धि से गुरु के विषय में श्रसत् दोष का श्रारोप करने से मानस श्रविनय होता है । मानस अशुभयोग - देखो श्रभिघ्या, असूया और मानसिक विनय - १. पाप-विसोत्तिनपरिणामईर्ष्या । अभिध्या व्यापादेष्यसूयादीनि मानसः । वज्जणं पिय-हिदे य परिणामो । णादव्वो संखेवेणंसो माविण ॥ ( मूला. ५- १८२ ) । २. माणसिश्रो पुण विणओ दुविहो उ समासप्रो मुणीयव्वो । प्रकुसल मणोनिरोहो कुसलमण- उदीरणं चेव । ( व्यव. भा. पी. १-७७, पृ. ३०) 1 ३. अकुशलस्य) ध्यानाद्युपगतस्य मनसो निरोधः अकुशलमनोनिरोधः, कुशलस्य धर्मध्यानाद्युत्थितस्य मनस उदीरणं मानसिको विनयः । ( ब्यव. भा. मलय. वृ. पी. १-७७) । १ पापस्वरूप विरुद्ध श्राचरण की परिणति को रोकना तथा प्रिय एव हितकर मार्ग में परिणत ( तत्पर) रहना, इसका नाम मानसिक विनय है । २ मानसिक विनय दो प्रकार का है, अकुशलदुर्ध्यान को प्राप्त- मन को रोकना और कुशलसमीचीन ध्यान जो प्राप्त मन को उद्यत करना, इसे मानसिक विनय कहा जाता है । मानान्यत्व -- देखो हीनाधिकमानोन्मान । तथा मीयतेऽनेनेति मानं कुडवादि पलादि हस्तादि, तस्या ६०७, जैन-लक्षणावली ( त. भा. ६-१ ) । श्रभिध्या, व्यापाद, ईर्ष्या और प्रसूया श्रादि को मानस प्रशुभ योग कहा जाता है । श्रपाय सहित उत्पादन का नाम व्यापाद है । जैसे—इसका शत्रु इन्द्र का घातक वज्र है, भ्रतः उसी को कुपित करता हूं । मानस - समीक्ष्याधिकरण - देखो मानसासमीक्ष्याधिकरण | मानस जप - मानसो मनोमात्रवृत्तिनिर्वृत्तः स्वसंवेद्यः । (निर्वाणक. पृ ४) । एक मात्र मन के व्यापार से जो जप होता है उसे मानस जप कहते हैं; वह स्वसंवेद्य होता है - श्रपने श्राप ही जाना जाता है। तीन प्रकार के जप में यह प्रथम है । मानस तप- मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः । भावसंशुद्धिरित्येतन्मानसं तप उच्यते । ( गु. गु. षट्. स्वो वृ. २, पृ. ६ उद्) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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