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________________ मंगलचैत्य ९०३, जैन-लक्षणावली [मंडलिक, मंडलीक मित्युच्यन्ते । (भावप्रा. टी. १२२) । वृ. १२-७८, पृ. २३३)। १ 'म' नाम मल का है। जो पापरूप मल को नष्ट जिस योग में सूर्य, चन्द्र व नक्षत्र मचान के प्राकार करता है उसे मंगल कहते हैं, अथवा द्रव्य व भाव में रहते हैं उसे मंचयोग कहा जाता है। यह ज्योमल के भेदभूत जो अनेक प्रकार का ज्ञानावरणादि तिष शास्त्र में प्रसिद्ध दस योगों में तीसरा है। रूप मल है उसे जो गलाता है-नष्ट करता है- मंचातिमंचयोग-मञ्चात् व्यवहारप्रसिद्धात् द्विउसे मंगल कहा जाता है; अथवा मंग नाम सुख का। त्रादिभूमिकाभावतोऽतिशायी मञ्चो मञ्चातिहै, उसको जो लाता है-प्राप्त कराता है- मञ्चस्तत्सदृशो योगोऽपि मञ्चातिमञ्चः । (सूर्यप्र. वह मंगल कहलाता है। ३ गमनार्थक मङ्ग धातु मलय. वृ. १२-७८, पृ. २३३)। से अल् प्रत्यय होकर मंगल शब्द बना है, उसका जो मचान सामान्य मचान से दो-तीन खण्डों के अर्थ यह है कि जिसके द्वारा हित जाना जाता है रूप में अतिशय युक्त होता है उसे मंचातिमंच कहते या सिद्ध किया जाता है वह मंगल कहलाता है। हैं। जिस योग में सूर्य, चन्द्र व नक्षत्र मंचातिमंच अथवा व्याकरणप्रसिद्ध अभीष्ट प्रकृति-प्रत्ययरूप के प्राकार रहते हैं उसे मंचातिमंचयोग कहा निपातन क्रिया से मंगल शब्द सिद्ध होता है, तदनु. जाता है । सार यथायोग्य प्रायोजन करना चाहिए। अथवा मंडनधात्री दोष-बालं स्वयं मण्डयति मण्डन'म' का संस्कृतरूप 'माम्' होता है-तदनुसार निमित्त बा कर्मोपदिशति यस्मै दा स तेन भक्तः जो मुझे ससार से छुड़ाता है-मुक्ति प्राप्त कराता । सन् दानाय प्रवर्तते, तद्दानं गृह्णाति साधुस्तस्य है -उन मंगल जानना चाहिए। अथवा 'म' का मण्डनधात्रीनामोत्पादनदोषः । (मला. वृ. ६-२८)। अर्थ निषेधवाचक मा और 'गल' का अर्ध विघ्न बालकों को स्वयं सजाता है तथा सजाने की विधि होता है। तदनुसार यह अभिप्राय हुआ कि शास्त्र का जिस दाता के लिए उपदेश देता है वह दाता परिसमाप्ति में विघ्न मत होमो, इसके लिए मंगल उससे प्रेरित होकर दान में प्रवृत्त होता है। साधु किया जाता है। उस दाता के दान को यदि ग्रहण करता है तो मंगलचंत्य - देखो मंगलकारिता जिनप्रतिमा। उसके मण्डनधात्री नाम का उत्पादन दोष होता है। १. अरहतपइट्टाए महुरानयरीए मंगलाई तु। मंडल (देश)- सर्वकामदुधात्वेन पतिहृदयं मण्डगेहेसु चच्चरेसु य छन्नउईगाम अद्धेसु । (बृहत्क. यति भूषयतीति मण्डलम् । (नीतिवा. १६-४, पृ. १७७६) । २. मथुरापुर्यां गृहेषु कृतेषु मङ्गलनिमित्तं १६१) । यद् निवेश्यते तद्मङ्गलचैत्यम् । (बृहत्क. क्षे. वृ. जो कामधेनु के समान पति (राजा) की इच्छानों १७७४ ।। ३. मङ्गलचैत्यं गृहद्वारदेशादिनिकुट्टित- की पूर्ति का कारण होने से उसके हृदय को मण्डित प्रतिमारूपम् । (जीतक. चू. वि. प. व्या. ७-२४, या भूषित करता है उसे मण्डल कहा जाता है। पृ. ४०) । मंडलस्थान-१. मण्डलं नाम दोवि पाए दाहिण१ मथुरा नगरी में गहों की रचना करते हुए घरों वामहत्ता ऊण्णो (दोण्हं) अन्तरा चत्तारि पया। में और चत्वरों में-चौक या चौरास्तों में- (प्राव. नि. मलय. व. १०३६, पृ. ५६७ । मंगल के निमित्त जो प्ररहंत प्रतिमानों की प्रतिष्ठा २. द्वावपि पादौ समौ दक्षिण-वामतोऽपसार्य ऊरू की जाती है उसे मंगलचैत्य कहा जाता है। प्रसारयति यथा मध्ये मण्डलं भवति अन्तरा चत्वारः मंगल्यकारिता जिनप्रतिमा-मङ्गल्यकारिता या पादास्तत् मण्डलम् । (व्यव. भा. मलय. व. पी. गृहेषु द्वारपत्रेषु मङ्गलाय कार्यन्ते । (योगशा. स्वो. द्वि वि. १-३५, पृ. १३)। विव. ३.-१२०)। २ योद्धानों के जिस स्थान विशेष में दोनों सम पांवों जो जिनप्रतिमायें मंगल के निमित्त घरों में प्रौर को दाहिनी और बायीं पोर हटाकर जंघानों को द्वारपत्रों में की जाती हैं उन्हें मंगलकारिता जिन- फैलाते हुए चार पादों का अन्तर रखा जाता है प्रतिमा कहा जाता है। उसे मण्डलस्थान कहते हैं। मंचयोग-मञ्चो मञ्चसदृशः । (सूर्यप्र. मलय. मंडलिक, मंडलोक-१. चउराजसहस्साणं अहि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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