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________________ महासुख] ९०१, जैन-लक्षणावली [महोरग किन्तु सदित्यभिधानं यत्स्यात्सर्वार्थसार्थसंस्पशि। गाहमानश्च सकलमपि कलुषीकरोति, ततो न स्वयं सामान्यग्राहकत्वात् प्रोक्ता सन्मात्रतो महासत्ता। पातुं शक्नोति, नापि यूथम्, तद्वच्छिष्योऽपि यो (पंचाध्या. १-२६५) । व्याख्यानप्रबन्धावसरेऽकाण्ड एव क्षुद्रपृच्छाभिः कलह१ जो समस्त पदार्थसमूह मे व्याप्त होती हुई सादृश्य विकथादिभिर्वा आत्मनः परेषां चानुयोगश्रवणविके मास्तिक की सूचक है वह महासत्ता कहलाती है। घातमाधत्ते स महिषसमानः । स चैकान्तेनायोग्यः । महासुख-xxx निःस्पृहत्वं महासुखम् । (प्राव. नि. मलय. व. १३६, पृ. १४४)। . (ज्ञा. सा. १२-८, पृ. ४४) । १ जिस प्रकार भैसा पानी को गंदा करके न स्वयं निःस्पृहता-बाह्य विषयों की इच्छा न करना, यह पीता है और न अन्य पशुओं के समूह को पीने महासुख का लक्षण है। देता है, उसी प्रकार जो कुत्सित शिष्य कलह, महास्कन्धवर्गणा-१. महाकंधवग्गणा णाम टंक- विकथा और असामयिक प्रश्नों के द्वारा तात्त्विक पव्वय-कूड़ादीण अस्सिया पोग्गला महाखंधा वुच्चंति। व्याख्यान के सुनने में बाधा पहुंचाता है उसे महिष (कर्मप्र. च.१-१८, पृ. ४३) । २. महास्वन्धवर्गणा नाम ये पुद्गलस्कन्धा विश्रसापरिणामेन टङ्क- महोशय-देखो क्षितिशयन व्रत । प्रसन्नप्रासुकाकूट-पर्वतादिसमाश्रिताः । (कर्मप्र. मलय. वृ. ऽनात्मसंस्कृतेला-शिलादिषु । एकपाश्र्वन कोदण्ड१-१८, पृ. ४८)। दण्डशय्या महीशयः ।। (प्राचा. सा. १-४४) । १ टाँकी, पर्वत और कूट (पर्वतीय शिखर आदि) स्वच्छ, प्रासुक एवं प्रात्मसंस्कार से रहित पृथिवी के प्राश्रित जो पुदगलस्कन्ध हो उन्हें महास्कन्ध- अथवा शिला प्रादि के ऊपर एक पार्श्वभाग (करवर्गणा कहा जाता है। वट) से धनुष या दण्ड के समान शयन करना, यह महिमा --१. मेरूवमाणदेहा महिमा xxx। मुनि के २८ मूल गुणों में महीशय नाम का एक (ति. प. ४-१०२७) । २. मेरोरपि महत्तरशरीर- मूल गुण है । विकरणं महिमा । (त. वा. ३, ३६, ३, पृ. २०३; महैषी (महेसी)-महः एकान्तोत्सवरूपत्वान्मोक्षः, चा सा. पृ. ९७)। ३. परमाणुपमाणदेहस्स मेरु- तमिच्छतीत्येवशीलो महैषी वा। (उत्तरा. सू. शा. गिरिसरिससरीरकरणं महिमा णाम । (धव. पु. ६, पृ. वृ. ४-१०, पृ. २२५)। ७५)। ४. महिमा महतः कायस्य करणं । (प्रा. 'मह' का अर्थ एकान्त उत्सवरूप मोक्ष है, उसकी योगिभ. ६, पृ. १६६) । ५. महन्महिमवान्मेरोरपि जो अभिलाषा करता है वह महेसी कहलाता है। कुर्याद्वपुः क्षणात् । (गु. गु. षट्. स्वो. वृ. ८)। 'महेसी' इस प्राकृत भाषागत शब्द के संस्कृत में दो ६: महाशरी रविधान महिमा। (त. वृत्ति श्रुत. रूप होते हैं - महर्षि और महैषी। ऋषियों में जो श्रेष्ठ हो उसे महर्षि कहा जाता है । १ जिस ऋद्धि के प्रभाव से मेरुपर्वत के समान महोरग-१. महोरगा: श्यामावदाता महावेगा: विशाल शरीर किया जा सकता है उसका नाम । सौम्या: सौम्यदर्शना महाकायाः पृथुपीनस्कन्ध-ग्रीवा महिमा ऋद्धि है। विविधानुविलेपना विचित्राभरणभूषणा नागवृक्षमहिला-पालं जणेदि पुरिसस्स महल्लं जेण तेण । ध्वजाः । (त. भा. ४-१२; बृहत्सं. मलय. वृ. महिला सा । (भ. श्रा. ९८१)। ५८)। २. सकारेण विकरणप्रिया: महोरगा: स्त्री चंकि पुरुष के महान माल-दोषारोपण को १ जो व्यन्तर जाति के देव वर्ण से कृष्ण होते हए महिषसमान शिष्य-१. सयमवि न पियइ महिसो निर्मल, अतिशय वेगशाली, सुन्दर, सौम्यदर्शन, न य जूहं पियइ लोलियं उदगं । विग्गह-विकहाहि विशाल शरीर वाले, विस्तृत कन्धों व ग्रीवा से तहा अथककपुच्छाहिं य कुसीसो । (विशेषा. युक्त, अनेक प्रकार के विलेपनों से सहित, विचित्र १४७६)। २. यथा महिषो निपानस्थानमवाप्तः अलंकारों से विभूषित और नागवृक्ष की ध्वजा से सन् उदकमध्ये तदुदकं मुहुर्मुहुः शृंगाभ्यां ताडयन्नव- चिह्नित होते हैं उन्हें महोरग कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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