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________________ मल्लि ] ८६५, जैन-लक्षणावली [महत्त्व मल्लि-परीषहादि-मल्लजयान्निरुक्तान्मल्लिः, तथा २ जो कुल में वृद्ध होता है उसे महत्तर कहा जाता गर्भस्थे मातुः एकऋतौ सर्वर्तुसुरभिकुसुममाल्य- है । शयनीयदोहदो देवतया पूरित इति मल्लिः । (योग- महत्तरापदानीं-कुरूपा खण्डिताङ्गी च हीनाशा. स्वो. विव. ३-१२४)। ग्वयसमुद्भवा । मूढा दुष्टा दुराचारा सरोगा कटुपरीषहादिरूप मल्लों पर विजय प्राप्त करने के भाषिणी ।। सर्वकार्ये वनभिज्ञा कुमुहूर्तोद्भवा तथा । कारण १९वें तीर्थकर मल्लि कहलाये । उक्त कुलक्षणाचारहीना युज्यते न महत्तरा ॥ (प्राचारदि. तीर्थकर के गर्भ में स्थित होने पर माता को एक पृ. १२० उद्.)। ऋतु में सब ऋतुओं के सुगन्धित फूलों की शय्या जो कुरूप हो, विकलांग हो, हीन कुल में उत्पन्न हुई का दोहला उत्पन्न हुआ, जिसे देवता ने पूरा किया हो, मूर्ख हो, दुष्ट स्वभाववाली हो, दूषित पाचरण था। इससे उनका नाम मल्लि प्रसिद्ध हुआ। से सहित हो, रोगयुक्त हो, कटु भाषण करने वाली मषिकर्म - xxx मषिलिपिविधी स्सृता । हो, सब कार्यों के ज्ञान से रहित हो, प्रशुभ मुहूर्त (म. पु १६-१८१)। में उत्पन्न हुइ हो, तथा कुत्सित लक्षणों से युक्त लेखन क्रिया का नाम मषिकर्म है। होती हुई प्राचार से हीन हो; वह महत्तरा होने के मषिकर्मार्य - १. द्रव्याय-व्ययादिलेखननिपुणा योग्य नहीं होती। महत्तरापदार्हा-सिद्धान्तपारगा शान्ता कृतयोमषीकर्माः । (त. वा. ३, ३६, २)। २. पाय गोत्तमान्वया । चतुःषष्टिकलाज्ञात्री सर्व विद्याविशारव्ययादिलेखनवित्ता मषीकार्याः। (त. वृत्ति श्रुत. दा।। प्रमाणादिलक्षणादिशास्त्रज्ञा मजुभाषिणी। ३-३६)। उदारा शुद्धशीला च पञ्चेन्द्रियजये रता ॥ धर्म१. द्रव्य के प्राय और व्यय के लिखने में जो चतुर व्याख्याननिपुणा लब्धियुक्ता प्रबोधकृत् । समस्तोहोते हैं वे मषीकार्य या मषिकर्मार्थ कहलाते हैं। . पधिसन्दर्भकृताभ्यासातिधैर्ययुक् ।। दयापरा सदामसक समान शिष्य-यः शिष्यो मसक इव नन्दा तत्वज्ञा बुद्धिशालिनी। गच्छानुरागिणी नीतिजात्यादिकमुद्घट्टयन् गुरोर्मनसि व्यथामुत्पादयति निपुणा गुणभूषणा ॥ सबला च विहारादौ पञ्चास मसकसमानः, स चायोग्यः। (प्राव. नि. मलय. चारपरायणा। महत्तरापदार्हा स्यादीदशी व्रतिनी व. १३६, पृ. १४४)। ध्रुवम् ।। (प्राचारवि. पृ. १२० उद्.)। जो शिष्य मसक के समान जाति प्रादि को नष्ट सिद्धान्त में पारंगत, शान्त, अनुष्ठेय क्रियानों की करता हुमा गुरु के मन में पीड़ा को उत्पन्न करता करने वाली, उत्तम कुल में उत्पन्न, चौसठ कलानों है उसे मसक समान शिष्य कहा जाता है। की जानकार, समस्त विद्यामों में निपुण, प्रमाण मस्तिष्क-मस्तिष्कं मस्तुलुङ्गकं शिरोऽङ्गस्या- प्रादि व लक्षण प्रादि शास्त्रों की जानने वाली, भकोऽवयवः । (त. भा. सिद्ध. व. ८-१२, मधरभाषिणी, उदारहृदय, शील से पवित्र, पांचों पृ. १५२)। इन्द्रियों के जीतने में उद्यत, धर्म के व्याख्यान में मस्तलंग (सिर में से निकलने वाला एक चिक्कण कुशल, ज्ञानावरणादि कमो के क्षयोपशम रूप लब्धि पदार्थ) को मस्तिष्क कहते हैं। वह शिर रूप अंग से सम्पन्न, प्रबोध की करने वाली, समस्त उपधियों का प्रारम्भक एक अवयव (उपांग) है। के सन्दर्भ में किए गये अभ्यास से सहित, अतिशय महत्तर-१. गंभीरो मद्दवितो, कुसलो जाइ- धीरता को प्राप्त, दयालु, सदा प्रसन्न रहने वाली, विणयसंपन्नो। जुवरण्णाए सहितो पेच्छइ कज्जाइं वस्तुस्वरूप की जानकार, बुद्धिमती, गच्छ से अनमहत्तरप्रो। (व्यव. भा. (तृ. वि.) पृ. १२९)। राग करने वाली, नीति में चतुर, गुणों से विभषित, २. महत्तरः कुलवृद्धः । (त्रि. सा. टी. ६८३)। विहारादि में समर्थ और पांच प्राचारों के परि१ जो गम्भीर, विनीत, कुशल एवं जाति व विनय से पालन में तत्पर; इन गुणों से संयुक्त साध्वी मह. सम्पन्न होता हुआ युवराज के साथ राज्य के कार्यो तरा पद के योग्य होती है। को देखता है उसे महत्तर या महत्तरक कहते हैं। महत्त्व-महत्त्वं मेरोरपि महत्तरशरीरकरणसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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