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________________ मरणाशंसा] ८६३, ३ काय, वचन, इन्द्रिय पांच, मन, उच्छ्वास - निःश्वास और प्रायु इन १० प्राणों के परित्याग के भय को मरणभय कहते हैं । जैन - लक्षणावली मरणाशंसा - १. जीवन संक्लेशान्मरणं प्रति चित्तानुरोधो मरणाशंसा। रोगोपद्रवाकुलतया प्राप्तजीवन संक्लेशस्य मरणं प्रति चित्तस्य प्रणिधानं मरणाशंसा इति व्यपदेशमर्हति । (त. वा. ७, ३७, ३) । २. मरणाशंसाप्रयोगः न कश्चित्तं प्रतिपन्नानशनं भवेषते न सपर्यायामाद्रियते न कश्चिच्छ्लाघते ततस्तस्यैवंविधचित्तपरिणामो भवति यदि शीघ्रं म्रिये ऽहम् पुण्यकर्मेति मरणाशंसा । ( श्री. प्र. टी. ३८५ ) । ३. जीवितसंक्लेशान्मरणं प्रति चित्तानु रोधो मरणाशंसा । (त. श्लो. ७-३७ ) । ४. रोगोपद्रवाकुलतया प्राप्तजीवन संक्लेशस्य मरण प्रति चित्तत्रणिधानं मरणाशंसा। (चा. सा. पृ. २३) । ५. मरणाशंसा रोगोपद्रवाकुलतया प्राप्तजीवनमंक्लेशस्य मरणं प्रति चित्तप्रणिधानम्, यदा न कश्चित्तं प्रतिपन्नाशनं प्रति सपर्यया श्राद्रियते, न च कश्चित् श्लाघते तदा तस्य यदि शीघ्रं म्रियेय तदा भद्रकं स्यादित्येवंविधपरिणामोत्पत्तिर्वा । (सा. घ. स्वो टी. ८-४५ ) । ६. रुगादिभीतेर्जीवस्यासंक्लेशेन मरणे मनोरथो मरणाशंसा । (त. वृत्ति ७-३७ ) । १ रोग के उपद्रव से व्याकुल होकर जीवन में संक्लेश को प्राप्त होने से मरने का जो भाव उदित होता है, इसका नाम मरणाशंसा है । यह सल्लेखना का एक प्रतिचार है । २ जिसने सल्लेखना में उपवास को स्वीकार किया है उसको जब न कोई खोजता है, न पूजा में आदर करता है, और न प्रशंसा ही करता है तब उसके मन में जो यह परिणाम होता है कि मुझ पापी का मरण यदि शीघ्र हो जाता है तो अच्छा है, इसे मरणाशंसा कहा जाता है । मरालि - म्रियत इव शकटादी योजितो राति चददाति लत्तादि, लीयते च भुवि पतनेनेति मरालिः । ( उत्तरा. नि. ६४, पृ. ४९ ) । जो घोड़ा श्रथवा बैल गाड़ी या तांगे आदि में जोतने पर मरासा हो जाता है, लातें आदि मारता तथा जमीन पर पड़ जाता है उसे मालि कहते हैं । { Jain Education International [मलपरीषहजय मर्कटतन्तुचारण - १. मक्कडयतंतुपंतीउवरि दिलघु तुरिदपदखेवे । गच्छेदि मुणिमहेसी सा मक्कतंतुचारणा रिद्धी ॥ ( ति प ४ - १०४५) । २. कुब्जवृक्षान्तरालभाविनभः प्रदेशेषु कुब्जवृक्षादिसम्बद्धमर्कटतन्त्वालम्बनपादोद्धरण- निक्षेपावदाता ( प्रव. वृ. 'लम्बनतः पादोत्क्षेपनिक्षेपसमा ) मर्कटतन्तुनच्छिन्दन्तो यान्तो कर्कटतन्तुचारणाः । ( योगशा. स्वो विव. १-६, पृ. ४१; प्रव. सारो. वृ. ६०१) । १ जिस ऋद्धि के प्रभाव से महर्षि मकड़ी के तन्तुनों की पंक्ति के ऊपर से पांवों को रखते हुए शीघ्रता से गमन कर सकते हैं उसका नाम मर्कट तन्तुचारण ऋद्धि है । २ कुब्जक वृक्ष के अन्तरालवर्ती श्राकाशप्रदेशों में उक्त वृक्ष श्रादि से सम्बद्ध मकड़ी के तन्तुनों का आलम्बन लेकर जो पांवों को उठाते धरते हुए पवित्र रहते हैं- जीवों को बाधा नहीं पहुंचाते हैं और तन्तुम्रों को छिन्नभिन्न नहीं करते हैं वे मर्कटतन्तुचारणऋद्धि के धारक होते हैं । मल - देखो मल्ल । १. स्वेद - वारिसम्पर्कात् कठिनीभूतं रजो मलोऽभिधीयते । ( श्राव. सू. हरि. वृ. प्र. ४, पृ. ६५८ ) । २. मलं प्रङ्गैकदेशप्रच्छादकम् । (मूला. वृ. १-३१) १. पसीना के जल के सम्बन्ध से जो धूलि कठिनता को प्राप्त हो जाती है उसे मल कहा जाता है । २ जो मेल शरीर के एक भाग को श्राच्छादित करता है वह मल कहलाता है । मलधारण - देखो मलपरीषहजय । मलपरीषहजय - १. प्रकायिकजन्तु पीडापरिहारायामरणादस्नानव्रतधारिणः पटुर विकिरणप्रतापजनितप्रस्वेदाक्तपवनानीतपांसुनिचयस्य, सिध्मकच्छू-दद्रदीर्णकण्डूयायामुत्पन्नायामपि कण्डूयन- विमर्दन - संघट्टन विवर्जितमूर्तेः, स्वगतमलोपचय- परगतमलापन्नययोरसंकल्पितमनसः, सज्ज्ञान- चारित्रविमलसलिलप्रक्षालनेन कर्ममल-पङ्कजाल निराकरणाय नित्यमुद्यतमते लपीडासनमाख्यायते । ( स. सि. ६-६) । २. स्व- परमलापचयोपचयसंकल्पाभावो मलधारणम् । जलजन्तुपीडापरिहारायास्नानप्रतिज्ञस्य स्वेदपङ्कदिग्घसर्वाङ्गस्य, सिध्म-कच्छू-दद्वदीर्णनख - रोम-श्मश्रु केश विकृत सहज बाह्य मल कायस्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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