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________________ मंत्र ] तथा बाह्य निमित्तभूत मनोवर्गणा का प्रालम्बन होने पर मनपरिणाम के श्रभिमुख हुए जीव के श्रात्मप्रदेशों का जो परिस्पन्द होता है उसे मनोयोग कहते हैं । २ मन के योग्य पुद्गलों के ( मनोवर्गणा के ) श्राश्रय से जो श्रात्मप्रदेशों में परिणमन होता है उसका नाम मनोयोग है । मनोविनय - देखो मनविनय । `मन्त्र – १. × × × साहणरहियो अ मंतुति । ( प्राव. नि. ९३१) । २. कर्मणामारम्भोपायः पुरुषद्रव्यसम्पद्देश-कालविभागो विनिपातप्रतीकारः कार्यसिद्धिश्चेति पञ्चाङ्गो मन्त्रः । ( नीतिवा. १०–२५, पू. ११५) । ३ पाठमात्र प्रसिद्धः पुरुषाधिष्ठानो वा मन्त्रः । (योगशा. स्वो विब. १-३८, पृ. १३६ ) । ४. प्रसाधनो मन्त्रः, यस्याधिष्ठाता पुरुषः स मन्त्रः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. तृ. वि. पू. ११७ ) । ५. पाठमात्र सिद्धः पुरुषाधिष्ठानो वा मन्त्रः । ( धर्मसं. मान. ३ - २२, पृ. ४१ ) । १ जिस मंत्र में देवता पुरुष होता है तथा जो मंत्र जप व हवन श्रादि रूप साधना से रहित होता है उसे मंत्र कहते हैं । २ जो सभी कार्यों के प्रारम्भ करने का उपायभूत होता है ( १ ); जिसमें पुरुष, द्रव्य व सम्पत्ति - सामर्थ्य – (२) एवं देश - काल के विभाग ( ३ ) का भी विचार किया जाता है, जो श्रापत्ति का प्रतीकार करने वाला हो ( ४ ) तथा कार्यसिद्धि का भी जिसमें विचार (५) ; इन पांच अंगों से जो सम्पन्न हो उसे मंत्र कहा जाता है। इस प्रकार का मंत्र मन्त्रियों द्वारा राजा को दिया जाता है । मन्त्रपिण्ड - देखो मन्त्रोत्पादनदोष | १. तथैव मन्त्र जापावाप्तो मन्त्रपिण्ड: । ( प्रचारा. शी. वृ. २; १, २७३, पृ. ३२० ) । २. पुरुषदेवाधिष्ठितं पठितमिद्धं च प्रभाववर्णाम्नायं प्रयुञ्जानस्य पुरर्मन्त्रपिण्ड: । ( गु. गु. षट्. स्वो वृ. २०, पू. ४६)। १ मंत्र जाप का उपयोग करके जो भोजन प्राप्त किया जाता है वह मन्त्रपिण्ड नामक उत्पादनदोष से दूषित होता है । मन्त्रभेद - देखो विश्वस्तमन्त्रभेद व साकारमस्त्रभेद । मन्त्रभेदोऽङ्गविकार-भ्रूक्षेपादिभिः पराभिप्रायं ज्ञात्वाsसूयादिना तत्प्रकटनम् विश्वसितमित्रादिभिव Jain Education International ८१, जंन लक्षमावली [मन्त्रोपजोवन आत्मना सह मंत्रितस्य लज्जादिकरस्यार्थस्य प्रकाशनम् । ( सा. घ. स्व. टी. ४-४५ ) शरीर के विकार व भ्रुकुटियों के निक्षेप प्रादि से दूसरे के अभिप्राय को जानकर उसे प्रगट कर देना अथवा विश्वासपात्र मित्र आदि के द्वारा जो अपने साथ लज्जाजनक कार्य का विचार किया गया है उसे प्रगट कर देना, यह मन्त्रभेद नामक सत्याणुव्रत का एक प्रतिचार है । मन्त्रानुयोग - मन्त्रानुयोगश्चेटका हिमन्त्रसाधनोपायशास्त्राणि । (समवा. अभय वृ. २६, पृ. ४७)। चेटक और अहि (सर्प) मंत्र की सिद्धि के उपायभूत शास्त्रों को मंत्रानुयोग कहा जाता है । मन्त्री- देखो मन्त्र । १. श्रकृतारम्भमारब्धस्याप्यनुष्ठानमनुष्ठित विशेषं विनियोगसम्पदं च ये कुर्युस्ते मन्त्रिणः । ( नीतिवा. १०- २४, पृ. ११५ ) । २. मंत्री पञ्चाङ्गमन्त्रकुशलः । ( त्रि. सा. टी. ६८३) । ३. तथा च शुक्रः - दर्शयन्ति विशेषं ये सर्वकर्मसु भूपतेः । स्वाविकारप्रभावं च मंत्रिणस्तेऽन्यथा परे । ( नीतिवा. टी. १०-२४) । ४. मन्त्रिणो राज्याधिष्ठायकाः सचिवाः । ( कल्पसू. विनय. वृ. ६२, पृ. ε६) । १ जो नहीं किये गये कार्य को प्रारम्भ करते हैं, प्रारब्ध कार्य का विधिवत् निर्वाह करते हैं, धनुठित कार्य को प्रतिशयित करते हैं, तथा सम्पत्ति का यथोचित विनियोग करते हैं, वे मंत्री कहलाते हैं । २ जो पांच अंगयुक्त मंत्र में कुशल होते हैं उन्हें मंत्री कहते हैं । मन्त्रोत्पादनदोष - देखो मन्त्रपिण्ड | १. सिद्धे पढिदे मंते तस्स य श्रासापदाणकरणेण । तस्स य माहप्पेण य उप्पादो मंतदोसो दु । ( मूला. ६-३६) XXX मन्त्रश्च तद्दान-माहात्म्याभ्यां मलोऽश्नतः ॥ ( प्रन. ध. ५-२५) । २. १ जो मंत्र पढ़ने पर ही सिद्ध होने वाला है उसके देने की प्राशा दिलाकर प्रौर उसकी महिमा को दिखला कर यदि ग्राहार प्राप्त किया जाता है तो वह मंत्रोत्पादनदोष से दूषित होता है । मन्त्रोपजीवन- देखो मंत्रोत्पादन दोष । प्रङ्गशृङ्गारकारिणः पुरुषस्य पाठसिद्धादिमन्त्राणामुपदेशनं मंत्रोपजीवनम् । ( भावप्रा. टी. EE ) । शरीरशृङ्गार करने वाले पुरुष के लिए पढ़ने मात्र For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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