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________________ मध्यम उपवास ८७८, जैन-लक्षणाबली [मध्यस्थ महासत्ता । (कातिके. १९६)। मध्यमं पात्रमित्याहुविरताविरतं बुधाः ।। (पू. उपा१ जो विजयी-जितेन्द्रिय-जीव प्रात्मा को देहादि सका. ४६) । से भिन्न जानता हा मोक्षसुख में अनुरक्त १ संयतासंयत-देशव्रती श्रावक-मध्यम पात्र कहे होकर प्रात्मस्वरूप का अनुभव करता है और जाते हैं। २ शील और व्रतों की भावनामो से विषयों का स्वप्न में भी सेवन नहीं करता है उसे रहित सम्यग्दृष्टि मध्यम पात्र कहलाता है। मध्यम प्रात्मा कहते हैं । २ श्रावक के गुणों से मध्यम बुद्धि-xxx मध्यमबुद्धिस्तु मध्ययुक्त-पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक-और प्रमत्त- माचारः । (षोडश. १-३)। विरत ये मध्यम आत्मा होते हैं। बाल, मध्यमबुद्धि और बुध इन तीन प्रकार के मध्यम उपवास-साम्बर्मध्ये xxx॥ (अन. परीक्षकों में मध्यम प्राचार वाला परीक्षक मध्यमघ. ७-१५); उक्तं च-xxx उपवासः सपा- बुद्धि कहलाता है। नीयस्त्रिविधो मध्यमो मतः ॥ (प्रन.ध. स्वो. टी. मध्यम लोक-१. मज्झिमलोयायाशे उ ७-१५)। मुर अद्धसारिच्छो॥ (ति. प. १-१३७) । २. भदरधारण (सप्तमी आदि) और पारण (नवमी आदि) परिच्छिण्णो मज्झलोगो त्ति । (धव. पु. ४, पृ६); के दिन एकाशनपूर्वक पानी के साथ जो उपवास हेट्ठा मज्झे उवरि वेत्तासण-झल्लरी-म इगाणहो । किया जाता है-पानी को छोड़कर अन्य सब (धव. पु. ४, पृ. ११ उद्.); ण च एत्थ झल्लरीप्रकार के प्राहार का परित्याग किया जाता है- संठाणं णत्थि, मज्झम्हि सयंभुरमणोदहिपरिविखत्तउसे मध्यम उपवास कहा जाता है। देसेण चंदमंडल मिव समतदो प्रसंखेज्जजोयणरु देण मध्यम पद-१. सोलससद चोत्तीसकोडि-तेसीदि. जोयणलक्खबाहल्लेण झल्लरीसमाणत्तादो। (धव. लक्ख-अट्ठहत्तरिसय-अट्ठासीदिअक्खरेहिं (१६३४८- पु. ४, पृ. २१)। ०७८८८) एगं मज्झिमपदं होदि। (जयघ. १, १ मध्यम लोक का प्राकार खड़े किए हए मदंग के पृ. ६२; घव. पु. ९, पृ. १९५)। २. एकपदवर्णन- अर्ध भाग-बीच के भाग-के समान है। २ मध्य मस्कारोऽयम् षोडशशतं चस्त्रिशत्कोटीनां ज्य- लोक मेरु पर्वत के प्रमाण है, अर्थात् वह मेरु शीतिमेव लक्षाणि । शतसंख्याष्टासप्ततिमष्टाशीति पर्वत की ऊंचाई के बराबर (१४०००० यो.) च पदवर्णान् ॥ (धव. पु. ६, पृ. १६५); सोलस- गोल प्राकार में स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त सदचोत्तीसं कोडी तेसीदि चेव लक्खाई। सत्त- अवस्थित है। सहस्सट्ठसदा अट्ठासीदा य पदवण्णा ॥ एत्तियाणि मध्यमा प्रतिष्ठा-देखो क्षेत्राख्या प्रतिष्ठा । अक्खराणि घेत्तूण एगं मज्झिमपदं होदि। (धव. ऋषभाद्यानां तु तथा सर्वेषामेव मध्यमा ज्ञेया । पु. १३, पृ. २६६)। (षोडश. ८-३)। १ सोलह सौ चौंतीस करोड़, तेरासी लाख, सात ऋषभादि सभी (चौबीस) तीर्थंकरों के बिम्बों की हजार, पाठ सौ अठासी (१६३४८३०७८८८), प्रतिष्ठा व्यक्त्याख्य, क्षेत्राख्य और महारुप इन इतने वर्णों का एक मध्यम पद होता है। तीन प्रकार की प्रतिष्ठानों में मध्यम (क्षेत्राख्य) मध्यम पात्र - १. मध्यमं तु भवेत्पात्रं संयता- प्रतिष्ठा मानी जाती है। संयता जनाः। (ह. पु. ७-१०६)। २. सदष्टि- मध्य लोक-देखो मध्यम लोक । झल्लरिसमो य मध्यमं पात्रं निःशीलवतभावनः ॥ (म. प्र. मज्झे xxx॥ (पउमच. ३-१६)। २०-१४०; पुरु. च.८-१६, पृ. १६२) । ३. उपा. लोक मध्य में झालर जैसे प्राकार बाला है, अर्थात सकाचारविधिप्रवीणो मन्दीकृताशेषकषायवृत्तिः । मध्य लोक प्राकार में झालर के समान है। उत्तिष्ठते यो जननव्यपाये त मध्यमं पात्रमुदाह- मध्यस्थ-१. जो णवि वट्टइ रागे णवि दोसे दोण्ह रन्ति ।। (अमित. श्रा. १०-३०)। ४.xxx मज्भयारंमि । सो होइ उ मज्झत्थो Xxx ॥ मध्यम श्रावको xxx। (सा. घ. ५-४४)। (प्राव. नि. ८.३)। २. राग-दोषयोरन्तरालं ५. सम्यक्त्व-व्रतसम्पन्नो जिनधर्मप्रकाशकः । मध्यम, तत्र स्थितो मध्यस्थः-राग-द्वषेष्ववक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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