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________________ मतिज्ञ नावरण] ८७५, जन-लक्षणावली [मत्स्योद्वत्तदोष ५ किसी प्रकार से पदार्थ के परिज्ञान के हो जाने दातृगुणासहिष्णुत्वं वा मत्सरः । यथाऽनेन तावच्छापर भी अपूर्व और सूक्ष्म से सूक्ष्म पदार्थ के पालो- वकेण मागितेन दत्तम्, किमहमस्मादपि हीनः इति चनरूप जो बद्धि होती है उसका नाम मति है। परोन्नतिवैमनस्याद् ददाति । एतच्च मत्सरशब्द३० जो बद्धि भविष्यत काल को विषय करने वाली स्यानेकार्थत्वात् संगच्छते । तदुक्तम् -मत्सरः पर. है उसे मति कहते हैं। __ सम्पत्त्यक्षमायां तद्वति ऋधि । (सा. घ. स्वो. टी. मतिज्ञानावरण-१. तस्स (मदिणाणस्स) पाव- ५-५४) । ३. मत्सरः परसंपदसहिष्णुता। (सम्बोरणं मदिणाणावरणं । (घव. पु. ७, पृ. ६७)। धस. व. ४) । २. अट्ठावीसइभयं मइनाणं इत्थ वणियं समए । तं १ मत्सर नाम क्रोध का है । जैसे-अन्वेषित होता (मतिज्ञानं) आवरेइ जं तं मइयावरणं हवइ पढमं ॥ हुमा क्रोध करता है, अन्वेषित याचित द्रब्य के होने (कर्यबि. ग. १३) । पर भी नहीं देता है, अथवा खोजने पर इस दरिद्र १ जो कर्म मतिज्ञान को आच्छादित करता है उसे ने तो दिया है, क्या मैं इससे भी हीन हूं; इस मतिज्ञानावरण कहते हैं। प्रकार के मात्सर्य भाव से देता है। इस प्रकार मत्यज्ञान-१. विस-जंत-कड-पंजर-बंधादिसू अणु- दूसरे की उन्नति में खेदखिन्न होना, इनका नाम वएमकरणेण । जा खलु पवत्तए मई मइअण्णाणंत्ति णं मात्सर्य है । यह अतिथिसंविभागवत का एक विति ॥ (प्रा. पंचसं. १-११८ धव. पु. १, पृ. (चौथा) अतिचार है। ३५८ उद्.; गो. जी. ३०३) । २. मिथ्यादृष्टेमति: मत्स्योवृत्तदोष-१. उटुिंत-निवेसिंतो उव्वत्तइ मत्यज्ञानम् । (नन्दी. हरि. व.पृ. ५६) । ३. मिथ्या- मच्छउव्व जलमज्झे । वंदिउकामो वऽन्नं झसो व त्वसमवेतमिन्द्रियजज्ञानं मत्यज्ञानम् । (धव. पु. १, परियत्तए तुरियं ॥ (प्रव. सारो. १५६) । २. उत्तिपृ. ३५८) । ४. मिथ्यादृष्टिपरिगृहीता मतिर्मत्य- ष्ठन् निविशमानो वा जलमध्ये मत्स्य इवोद्वर्तते उद्वेलज्ञानम् । (त. भा. सिद्ध. वृ.१-३२)। ५. रूपादौ यति यत्र तन्मत्स्योद्वत्तम्, अथवा एकमाचार्यादिक यद्विपर्यस्तं मत्यज्ञानं तदक्षजम् ॥ (पंचसं. अमित. वन्दित्वा तत्समीप एवापरं वन्दनाह कश्चन वन्दितु. १-२३१)। ६. उपवेशक्रियां विना यदीदृशं ऊहा- मिच्छंस्तत्समीपे जिगमिषुरुपविष्ट एव झष इव--- पोहविकल्पात्मकं हिंसानृत-स्तेयाब्रह्म-परिग्रहकारण- मत्स्य इव त्वरितमन परावृत्य यत्र गच्छति तद्वा मार्त-रौद्रध्यानकारणं शल्य-दंड-गारवसंज्ञाद्यप्रशस्त- मत्स्योद्वत्तम् । इत्थं च यदङ्गपरावर्तनं तद् रेचकापरिणामकारणं च इन्द्रिय-मनोजनितविशेषग्रहणरूपं वर्त इत्यभिधीयते । (प्राव. हरि. व. मल. हेम. टि. मिथ्याज्ञानं तन्मत्यज्ञानम् । (गो. जो. म. प्र. पृ. ८८; प्रव. सारो. वृ. १५६)। ३. मत्स्योद्वतः पार्श्व द्वयेन वन्दनाकरणमथवा मत्स्यस्येव कटिभागे१ विष, यन्त्र, कूट, पंजर और बन्धन प्रादि के नोद्वत्तं कृत्वा यो वन्दनां विदधाति तस्य मत्स्योद्वर्तविषय में जो बिना उपदेश के बुद्धि प्रवृत्त होती है दोषः ।। (मूला. वृ. ७-१०७) । ४. मत्स्योद्वत्तउसे मत्यज्ञान कहते हैं। २ मिथ्यावृष्टि की बुद्धि मुत्तिष्ठन् निविशमाना वा जलमध्ये मत्स्य इवोद्वर्तते को मत्यज्ञान कहा जाता है। उद्वेल्लते यत्र तत, यद्वा एक वन्दित्वा द्वितीयस्य मत्सर-देवो मात्सर्य । १. तथा मत्सरः कोपः, साघोर्दुतं द्वितीयपान रेचकावर्तेन मत्स्यवत्परायथा मागितः सन् कुप्यति, सदपि मागितं न ददाति, वृत्य वन्दनम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०). अथवाऽनेन तावद द्रमकेण मागितेन दत्तम, किमहं ५. मत्स्योद्वत स्थितिमत्स्योद्वर्तवत् त्वेकपाश्र्वतः । ततोऽपि हीन इति मात्सर्याद् ददाति, अत्र परोन्नति- (अन. ध. ८-१०१)। वैमनस्यं मात्सर्यम् । यदुक्तमस्माभिरेवाऽनेकार्थसंग्रहे १ जो जल में स्थित मछली के समान उठता-बैठता -- मत्सरः परसम्पत्यक्षमायां तद्वति क्रुधि । इति हुअा (उछलता हुमा) वन्दना करता है, अथवा चतुर्थः । (योगशा. स्वो. विव ३-११६)। २. अन्य प्राचार्य की वन्दना का इच्छुक होकर जो मत्सरः कोप:, यथा मागितः सन् कुप्यति, सदपि वा मत्स्य के समान पाश्र्व भाग को परिवर्तित कर मागितं न ददाति, प्रयच्छतोऽप्यादराभावो वा, अन्य- वन्दना करता है वह मत्स्योवृत्त नामक वन्दना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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