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________________ भूतविद्या] ८६८, जंन - लक्षणावली [भूयस्कार उदय १ जो कार्य हो चुका है उसका वर्तमान काल में ताया राजिरुत्पन्ना वर्षापेक्षसंरोहा परमप्रकृष्टाऽष्टजो आरोप किया जाता है उसे भूतनैगमनय कहते मास स्थितिर्भवति, एवं यथोक्तनिमित्तो यस्य क्रोवोहैं । जैसे- श्राज वर्धमान जिन मुक्तिको प्राप्त हुए। Sनेकवर्ष स्थायी दुरनुनयो भवति स भूमिराजिसदृशः । भूत विद्या - भूतानां निग्रहार्था विद्या शास्त्रं भूत- ( त. भा. ८-१० पु. १४४ ) । २. पृथ्वीभेदसमाविद्या, सा हि देवासुर- गन्धर्व-यक्ष-राक्षसाध्युपसृष्ट- नानुत्कृष्टशक्तिविशिष्टः कोध स्तिर्यग्गतौ जीवमुत्पादचेतसां शान्तिकर्म - वलिकरणादिभिर्ग्रहोपशमनार्था । यति । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. २८४)। ( विपाक. सू. श्रभय. वृ. पू. ४६ ) । १ जिस प्रकार सूर्य की किरणों के समूह से जिसकी चिक्कणता ग्रहण कर ली गई है तथा जो वायु से ताड़ित हुई है ऐसी पृथिवी के रेखा उत्पन्न हुई, वह वर्षा से भर जाती है । उसके भरने का उत्कृष्ट काल आठ मास है । इसी प्रकार यथोक्त कारण से जिसके क्रोध उत्पन्न हुआ है उसका वह क्रोध अनेक वर्ष रहता है व कष्ट से दूर होता है । इस प्रकार का वह क्रोध भूमिराजिसदृश कहलाता है। २ जो क्रोध पृथिवीभेद के समान अनुत्कृष्ट ( उत्कृष्ट से भिन्न) शक्ति से युक्त होता है वह पृथिवीराजि के सदृश माना जाता है और वह जीव को तिर्यंचगति में उत्पन्न कराता है । भूमिसंस्तर - घसे समे प्रसुसिरे श्रहिसुयनविले य अप्पपाणे य । असिणि घण गुत्ते उज्जोवे भूमिसंथारो ।। (भ. प्रा. ६४१ ) । जिस विद्या या शास्त्र के निमित्त से देव, असुर, गन्धर्व, यक्ष और राक्षस श्रादि से पीड़ित जीवों की पीड़ा को शान्तिकर्म आदि के द्वारा शान्त किया जाता है उसे भूतविद्या कहा जाता है । भूतिकर्म- - १. भूईए मट्टियाए व, सुत्तेण व होइ भूइकम्मं तु । वसही - सरीर- भंडगरक्खाग्रभियोगमाईया || (बृहत्क. भा. १३१० ) । २. ज्वरितादीनां तदपगमार्थं भूत्याः भस्मनोऽभिमन्त्र्य यत्प्रदानं तत् भूतिक । ( श्राव. हरि वृ. मल. हेम. टि. पू. ८२-८३) । १ विद्या से मन्त्रित भूति ( भस्म ), गीली मिट्टी अथवा धागे से चारों ओर वेष्टित करना; इसका नाम भूतिकर्म है। यह क्रिया वसति, शरीर और वर्तनों की रक्षा के निमित्त एवं प्रभियोग ( वशीकरण) आदि के लिए की जाती है । २ ज्वर श्रादि से पीड़ित जीवों को उसे दूर करने के लिए जो मन्त्रित भस्म को दिया जाता है वह भूतिकर्म कहलाता है । भूतिकुशील - भूत्या घूल्या सिद्धार्थकः पुष्पैः फलैरुदकादिभिर्वा मन्त्रितं रक्षां वशीकरणं वा यः करोति स भूतिकुशीलः । (भ. प्रा. विजयो. १६५० ) । मन्त्रित भस्म, धूलि, सरसों, पुष्पों, फलों और जल आदि के द्वारा जो रक्षण या वशीकरण करता है उसे भूतिकुशील कहा जाता है । भूमिकर्म्म - १. भूमिकर्म्म नाम विषमाणि भूमिस्थानानि भक्त्वा संमार्जन्या संमार्जनम् । ( व्यव. भा. मलय. वृ. ४-२७) । २. 'भूमि' त्ति समभूमिकरणम् । (वृहत्क. भा. मलय. वृ. ५८३ ) । १ विषम ( ऊंचे-नीचे) भू-भागों को खण्डित करके संमार्जनी (झाडू) से संमार्जन करना, इसका नाम भूमिकर्म है। भूमिराजसदृश क्रोध - १. भूमिराजिसदृशो नाम । यथा भूमेर्भास्कररश्मिजालादात्तस्नेहाया वाय्वभिह Jain Education International क्षपक का भूमिगत बिछौना ऐसी चाहिए जो मृदु न हो, ऊंची नीची पोली न हो, दीमक से रहित हो, बिलों से रहित हो, जीव-जन्तुनों से शून्य हो; अथवा क्षपक के शरीर प्रमाण हो, गीली न हो, सघन हो, गुप्त हो श्री प्रकाश से युक्त हो भूमिस्पर्शान्तराय - भूस्पर्शः पाणिना भूमेः स्पर्शे XXX I ( अन ध. ५ - ५५ ) । हाथ से भूमि का स्पर्श हो जाने पर भूस्पर्श नाम का भोजन का अन्तराय होता है । भूम्यलीक - देखो क्ष्मालीक । भूम्यलीकं परसत्कामप्यात्मादिसत्कां विपर्ययं वा वदतः, इदं च शेषपादपाद्यपदद्रव्य विषयालीकस्योपलक्षणम् । ( योगशा. स्वो विव. २- ५४, पृ. २८७ ) । दूसरे की भूमि को अपनी कहना या अपनी भूमि को दूसरे की बतलाना, यह भूम्यलीक भूमिविषयक असत्य कहलाता है। इससे चरणविहीन वृक्षादिविषयक सत्य को भी ग्रहण करना चाहिए । भूयस्कार उदय -- देखो भुजाकार उदय | For Private & Personal Use Only भूमि में होना हो- - सम हो, न www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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