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________________ [भीर भित्तिकर्म] ८६६, जैन-लक्षणावली सों को नष्ट करके उन्हें सहन करके-अध्यात्म- भिन्नदशपूर्वी कहते हैं । योग से-धर्मध्यान से-निर्मल पादान (चारित्र) भिन्नमुहूर्त-१. समऊणेक्कमुहुत्तं भिण्णमुहुत्तं x वाला हो, सम्यकचारित्र में उद्यत होकर उन्नति xx। (ति. प. ४-२८८) । २. Xxx वे को प्राप्त हो, स्थितात्मा-जिसकी प्रात्मा परीषह णालिया मुहुत्तो दु । एगसमएण हीणो भिण्णमुहुत्तो व उपसर्ग से अधृष्य होकर मोक्षमार्ग में स्थित हो, भवे सेसं ।। (धव. पु. ३, पृ. ६६ उद्.); तत्थ जो संसार को प्रसारता और बोधि को दुर्लभता (मुहुत्ते) एगसमए अवणिदे सेसकालपमाणं भिण्णको जानकर संयम के परिपालन में उद्यत हो, तथा मुहत्तो उच्चदि । (धव. पु. ३, पृ. ६७); भिण्णमुदूसरों के द्वारा दिये गये पाहार का उपयोग करने हुत्तं समऊणमुहुत्तं । (धव. पु. १३, पृ. ३०६) । वाला हो; इन गुणों से जो सम्पन्न हो उसे भिक्ष ३. एयसमएण हीणं भिण्णमहत्तं तदो सेसं। (जं. कहना चाहिए। दी. प. १३-६; गो. जी. ५७५) । ४. एकेन समभित्तिकर्म-घरकुड्डेसु तदो अभेदेण चिदपडिमानो येन न्यूनो मुहूर्तो भिन्नमुहूर्तः । (चारित्रप्रा. टी. भित्तिकम्मं । (धव. पु. ६, पृ. २५०); कुड्डेहितो १७)। अभेदेण कदएहि णिप्पाइयपडिमानो भित्तिकम्माणि १ एक समय कम मुहूर्त को भिन्नमूहूर्त कहा जाता णाम। (धव. पु. १३, पृ. १०); कुड्डेसु अभेदेण है। घडिदपंचलोगपालपडिमानो भित्तिकम्माणि णाम । भिन्नाभिन्नाक्षरचतुर्दशपूर्वधरत्व-भिन्नाक्षरा(धव. पु. १३, पृ. २०२); तेण चेव (मट्टियपिंडेण) णि किञ्चिन्यूनाक्षराणि चतुर्दशपूर्वाणि सम्पूर्णानि कडडेस घडिदरूवाणि भित्तिकम्माणि णाम । (धव. वा, तद्धारणत्वम् । (त. भा. सिद्ध. व. १०-७, पृ. पु. १४, पृ. ६)। ३१७)। घर की दीवालों पर जो उनसे अभिन्न प्रतिमायें कुछ अक्षरों से कम अथवा सम्पूर्ण चौदह पूर्वो को रची जाती हैं, इसे भित्तिकर्म कहा जाता है। धारण करना, इसका नाम भिन्नाभिन्नाक्षरचतुर्दशदीवालों पर उनसे अभिन्न रूप में रची गई पांच ऋद्धि है। लोकपालों की प्रतिमाओं का नाम भित्तिकर्म है।। भिषग् - भिषगायुर्वेद विद्वैद्यः शस्त्रकर्मविच्च । भिन्नदशपूर्वी- देखो अभिन्नदशपूर्वी । तत्थ (नीतिवा. १४-२६, पृ. १७४) । एक्कारसंगाणि पढिदूण पुणो परियम्म-सुत्त-पढ जो आयुर्वेद को जानता है वह भिषग् कहलाता है माणियोग-पुव्वगय-चूलियात्ति पंचहियारणिबद्धदिट्ठि तथा जो प्रायुर्वेद और शस्त्रक्रिया को भी जानता है वादे पढिज्जमाणे उप्पादपुव्वमादि कादूण पढंताणं वह वैद्य कहलाता है। दसपुवीए विज्जाणुपवादे समत्ते रोहिणीपादिपंचसयमहाविज्जाओ अंगुट्ठपसेणादिसत्तसयदहरविज्जाहि भिषग्वृत्ति- १. गजाश्वजांगुलीबालवद्याद्यैर्नीच वृत्तिभिः । भिषग्वृत्तिर्मता तादगन्यरप्यशनार्जनम् ॥ अणुगयाओ किं भयवं प्राणवेदि त्ति ढुक्कंति । एवं । ढक्कंताणं सव्वविज्जाणं जो लोभं गच्छदि सो (प्राचा. सा. ८-३८)। २. गजचिकित्सा विषभिण्णदसपुवी। (धव. पु. ६, पृ.६६)। चिकित्सा जांगुल्यपरनामा बालचिकित्सा तादृशान्यग्यारह अंगों को पढ़कर तत्पश्चात् परिकर्म, सूत्र, चिकित्साभिरशनार्जनं भिषग्वृत्तिः। (भावप्रा. टी. प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका, इन पांच अधि ६९)। कारों में विभक्त दृष्टिवाद के पढ़ते समय उत्पाद- १ १ हाथी, घोड़ा, विष या मन्त्र और बालक प्रादि पूर्व को प्रादि लेकर प्रागे के पूर्वो को पढ़ते हुए को चिकित्सा द्वारा तथा इसी प्रकार की दूसरी भी दसवें विद्यानुवाद पूर्व के समाप्त होने पर रोहिणी नीच वृत्तियों से-हीन भाजीविका के साधनों सेआदि पांच सौ महाविद्याएं तथा अंगुष्ठप्रसेनादि सात भोजन प्राप्त करना, इसे भिषग्वृत्ति कहते हैं। सो लघुविद्याएं प्राकर पूछती हैं कि भगवन् क्या भीरु-भीरुः ऐहिकामुष्मिकापायभीलुकः । (सम्बोआज्ञा देते हैं, इस प्रकार से प्रार्थना करने वाली धस. गु. वृ. २३, पृ. २०) । उक्त विद्यानों के लोभ को जो प्राप्त होता है उसे इस लोक सम्बन्धी व परलोक सम्बन्धी अपाय से पर्वधरत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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