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________________ भावैकान्त ] आदि इन्द्रियों विषयक उनके आवरण के क्षयोपशम रूप लब्धि और उपयोग को भावेन्द्रिय कहते हैं । भावैकान्त- - भाव एवेति सन्नेवेति एकान्तः ग्रसहायधर्मग्रहो भावैकान्तः, सर्वथा सत्त्वाभ्युपगम इत्यर्थ: । ( प्राप्तमी वसु वृ. १ - ९ ) । विवक्षित वस्तु 'सत् ही है' इस प्रकार से जो श्रसत्त्व धर्म की अपेक्षा से रहित ग्रहण होता हैकेवल सत्ता को ही स्वीकार किया जाता है, इसका नाम भावैकान्त है । भावोज्झित - लद्धूण अन्नवत्थे, पोराणे सो उ देइ अन्नस्स । सो वि अनिच्छइ ताई, भावुज्झियमेवायं । (बृहत्क. भा. ६१४) । कोई अन्य नवीन वस्त्रों को प्राप्त करके पुराने बस्त्र किसी दूसरे को देता है, वह ( दूसरा ) भी उन्हें पुराने होने के भाव (अभिप्राय ) से नहीं स्वीकार करता है; इसीलिए इत्यादि प्रकार के त्याग को भावोज्झित कहा जाता है । भावोत्थान कायोत्सर्ग - ध्येयैकवस्तुनिष्ठता ज्ञानयस्य भावस्य भावोत्थानम् । (भ. श्री. विजयो. ११६) । ज्ञानमय भाव, जो एक ध्येय वस्तुमें रहता है, इसका नाम भावकायोत्सर्ग है । भावोद्योत -- १. भावज्जोवो णाणं जह भणियं सव्वभावदरिसीहिं । तस्स दुपयोगकरणे भावुज्जोवोत्ति णादव्वो । (मूला. ७- १५६ ) । २. भावुज्जोवउज्जोनो लोगालोगं पगासेइ || ( श्राव. नि. १०६२) । १ भावोद्योत ज्ञान है, ऐसा सर्वज्ञ ने कहा है, उस का उपयोग करने पर भावोद्योत होता है, ऐसा जानना चाहिए । २ जो उद्योत लोक व अलोक को प्रकाशित करता है वह भावोद्योत उद्योत कहलाता है । भावोपक्रम - भावोपक्रमो हि नाम परहृदयाकूतस्य यथावत्परिज्ञानम् । (श्राव. नि. मलय. वृ. ७८, पृ. ε२)। दूसरे के हृदयगत अभिप्राय का जो यथार्थ ज्ञान होता है उसका नाम भावोपक्रम है । भावोपयोगवर्गणा - उबजोगो णाम कोहादिकसा एहि सह जोबस्स संपजोगो, तस्स वग्गणाओ वियप्पा भेदात्ति एट्टो । XXX भावदो तिब्व Jain Education International ८६१, जैन-लक्षणावली [भाषाद्रव्यवर्गणा मंदादिभावपरिणदाणं कसायुदयद्वाणाणं जहण्णवियcrogs जावुक्कस्सवियप्पो त्ति छवड्ढिकमेणावट्ठियाणं भावोवजोगवग्गणा त्ति ववएसो; भावविसेसि - दाश्रो उबजोगवग्गणाओ भावोवजोगवग्गणाग्रत्ति विवक्खियत्तादो | जयध. - कसायपा. पृ. ५७६, fz. 2) 1 क्रोधादि कषायों के साथ जो जीव का संयोग होता है उसका नाम उपयोग है, इस उपयोग के विकल्पों या भेदों को उपयोगवर्गणा कहा जाता है। तीव्रसन्द आदि भावों से परिणत कषायों के जघन्य विकल्प से लेकर उत्कृष्ट विकल्प तक षड्-वृद्धिक्रम से श्रवस्थित उदयस्थानों को भावोपयोगवर्गणा कहते हैं । भाव्यर्हन्– यस्मिन्नात्मनि अरिहननादयो भविष्यन्ति गुणाः स भाव्यर्हन् । (भ. श्री. विजयो. ४६ ) । जिस जीव में श्रागे अरिहनन - कर्मरूप शत्रु का विनाश - आदि गुण होने वाले हैं उसे भावी प्रर्हन् कहा जाता है। भाषक - भाषत इति भाषकः । ( श्राव. नि. हरि वृ. ८, पृ. १६ ) ; भाषालब्धिसम्पन्नाः भाषकाः । ( आव. नि. हरि. वृ. १५, पृ. २१) । जो भाषालब्धि से युक्त होते हैं वे भाषक कहलाते हैं । भाषा - १. भाष्यत इति भाषा । (श्राव. नि. हरि. वृ. ६ व ८ ) । २. व्यक्तवाग्भिर्वर्ण-पद- वाक्याकारेण भाष्यत इति भाषा । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ५- २४, पृ. ३६० ) । ३. भाष्यते इति भाषा, तद्योग्यतया परिणामितनिसृज्य मानद्रव्यसंहतिः । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. १६१) । १ जो बोली जाती है उसे भाषा कहते हैं । २ स्पष्ट वचन बोलने वाले व्यक्ति वर्ण, पद और वाक्य के श्राकार से जो कुछ बोलते हैं उसका नाम भाषा है । भाषाद्रव्यवर्गणा - १. भाषादव्ववग्गणा णाम चव्विहाए भासाए गहणं पवत्तति । तं जहासच्चाए मोसाए सच्चासोसाए असच्चामोसाए । जाई दव्वाई घित्तूणं सच्चादिभासत्ताए परिणामेउ णिस्सरंति जीवा ताणि ताणि दव्वाणि भासादव्ववग्गणा । ( कर्मप्र. चू. १६, पृ. ४० - ४१) । २. तत कोत्तरवृद्धि मत्स्कन्धारब्धा एता अपि भाषानिष्प For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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