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________________ ६ जेन लक्षणावली र्तक कर्म को नामकर्म कहा गया है। यहां भी त्रसभाव का कोई असाधारण लक्षण नहीं प्रगट किया गया । पर त. सू. की पूर्वोक्त स. सि. ( ८-११) प्रादि व्याख्यानों में त्रसनामकर्म उसे कहा गया है जिसके कि उदय से प्राणी का जन्म द्वीन्द्रिय आदि जीवों में होता है । त. भा. की हरिभद्र विरचित वृत्ति (२-१२ ) में ' त्रस्यन्तीति त्रसा:' ऐसी निरुक्ति करते हुए स नामकर्म के उदय से परिस्पन्दन आदि से युक्त जीवों को त्रस कहा गया है। आगे उसी त भाष्य की हरिभद्र व सिद्धसेन विरचित वृत्ति (८-१२ ) में ' त्रस्यन्तीति त्रसा:' इस प्रकार की निरुक्ति के साथ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय लक्षण प्राणियों को त्रस कहा गया है। कारण का निर्देश करते हुए वहां यह भी कहा गया है कि क्योंकि उस ( स ) कर्म के उदय से उपर्युक्त प्राणियों में परिस्पन्दन देखा जाता । जिस कर्म के उदय से गमनादि क्रिया रूप उस प्रकार की विशेषता होती है वह सभाब का निर्वर्तक बसनामकर्म कहलाता | श्रावकप्रज्ञप्ति की टीका (२२) में भी यही निर्देश किया गया है कि जिसके उदय से चलन वा स्पन्दन होता है वह त्रसनामकर्म कहलाता | दशकालिक की चूर्ण में (४-१, पृ. १३६) 'तसंतीति तसा ' ऐसी निरुक्ति मात्र की गई है । सूत्रकृतांग की शीलांक वृत्ति (२,६, ४, पृ. १४० ) में भी लगभग पूर्वोक्त अभिप्राय को ही व्यक्त किया गया है । दशकालिक सूत्र (४-१, पृ. १३६) में छठे जीवनिकायस्वरूप त्रस जीवों के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदिम, सम्मूच्छिम, उद्भिज और श्रोपपातिक जीवों का निर्देश किया गया है । आगे वहां कहा गया है कि जिन किन्हीं त्रस प्राणियों का ज्ञान उनके ग्रभिमुख गमन, प्रतिकूल गमन, संकोचन, प्रसारण, रुत (शब्द), भंत (भ्रमण), पीड़ित होकर पलायन एवं गमनागमन से होता है । साथ ही यह भी कहा गया है कि कीट-पतंग, कुन्थु, पिपीलिका, सब दो इन्द्रिय, सब तीन इन्द्रिय, सब चार इन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय ये सब तिर्यंच; सब नारक, सब मनुष्य, सब देव और परमाधार्मिक प्राणी; इस छठे निकाय को काय कहा जाता है । जीवाभिगम की वृत्ति ( 8 ) में कहा गया है कि जो जीव उष्ण आदि की वेदना से सन्तप्त होकर विवक्षित स्थान से छाया आदि के श्रासेवनार्थ अन्य स्थान को प्राप्त होते हैं वे त्रस कहलाते हैं । आगे इसे भोर भी स्पष्ट करते हुए विशेष रूप से यह निर्देश किया गया है कि ( त्रसन्ति इति त्रसाः ) इस व्युत्पत्ति से त्रसनामकर्म के उदय के वशवर्ती जीवों को ही जानना चाहिए, शेष जीवों को सरूप में नहीं ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार दशकालिक सूत्र में कुछ त्रस जीवों का नामोल्लेख करते हुए उनका परिज्ञान गमनागमनादि क्रियाओं से कराया गया है। श्वे. मान्य तत्त्वार्थ सूत्र (२, १३-१४ ) में पृथिवी, जल और वनस्पति जीवों को स्थावर बतलाते हुए तेज, वायु और द्वीन्द्रिय जीवों को त्रस कहा गया है । यहां तेज, श्रीर वायु जीवों का निर्देश जो स जीवों के अन्तर्गत किया गया है वह सम्भवतः क्रिया के श्राश्रय से किया गया है, न कि सनामकर्म के उदय के श्राश्रय से । के त्रसनामकर्म का उदय न रहकर स्थावरनामकर्म का ही दि. मान्यत. सू. (२, १३-१४) के इनको स्थावर भर द्वीन्द्रिय आदि जीवों को सन्दर्भ भी द्रष्टव्य है । कारण यह कि उदय रहता है । जीवों को त्रस बतलाते जो उसकी व्याख्या में सिद्धसेन गणि ने क्रिया के प्राश्रय से तेज और वायु हुए लब्धि से स्थावरनामकर्म के उदय के वशीभूत होने से उन्हें भी उक्त पृथिवी प्रादि के साथ स्थावर बतलाया है । अन्यथा, पूर्वोक्त सूत्रकृतांग और स्थानांग की वृत्तियों में द्वीन्द्रियादि जीवों को ही स बतलाना असंगत ठहरेगा । Jain Education International उक्त दोनों प्रकार के जीवों यही कारण प्रतीत होता है पाठ के अनुसार पृथिवी, जल, तेज, वायु और वनस्पति बस कहा गया है । यहां सनाम के अन्तर्गत ग्रन्थों का दर्शन - दर्शन शब्द से यहां उपयोगविशेष विवक्षित है । सम्मतिसूत्र ( २ - १ ), त. भा. की हरिभद्र विरचित वृत्ति (२-९), अनुयोगद्वार की हरिभद्र विरचित वृत्ति (पृ. १०३), पंचास्तिकाय की अमृत For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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