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________________ भावमल] ८५०, जैन-लक्षणावली [भावलेश्या एव । (प्राचारा. सू. शी. वृ. ५०, पृ. ६४)। मिलाप होता है उसका नाम भावयुति है। बुद्धि के उपचय (वृद्धि) से रहित बालक को भाव- भावयोग-१. xxx अंगोपाङ्ग-शरीरनाममन्द कहा जाता है, अथवा जिसकी बुद्धि कुशास्त्रों कर्मोदयागतपुद्गलस्कन्धकर्म - नोकर्मतापरिणामहेतुः से संस्कृत है उसे भी सदबुद्धि के अभाव के कारण शरीर-भाषा-मनःपर्याप्तिपरिणतस्य काय-वाग्मनोभावमन्द जानना चाहिए। वर्गणावलम्बिनः संसारिजीवस्य लोकमात्रप्रदेशगता भावमल-१. भावमलं णादव्वं अण्णाण-दसणादि या शक्तिः स भावयोगः । (गो. जी. म. प्र. २१६)। परिणामो ॥ (ति. प. १-१३) । २. अज्ञानादर्शना- २. पुद्गलविपाकिनः अङ्गोपाङ्गनामकर्मणः देहस्य दिपरिणामो भावमलम् । (धव. पु. १, पृ. ३२, च शरीरनामकर्मणः उदयेन मनोवचन-कायपर्याप्ति परिणतस्य काय-वाग्मनोवर्गणालम्बिनः संसारिजी१ प्रज्ञान व प्रदर्शन आदि परिणाम को भावमल वस्य लोकमात्रप्रदेशगता कर्मादानकारणं या शक्तिः जानना चाहिए। सा भावयोगः। (गो. जी. जी. प्र. २१६)। भावमोक्ष-१. भावमोक्षः समस्तकर्मक्षयलाञ्छ- १ शरीर, भाषा और मन पर्याप्ति से परिणत नः । (त. भा. सिद्ध. व. १-५, पृ. ४६)। होकर कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनवर्गणा का २. सव्वस्स कम्मणो जो खयहेदू अप्पणो ह परि- प्राश्रय लेने वाले संसारी जीव की जो प्रङ्गोपाङ्ग णामो। यो स भावमुक्खो Xxx ॥ (द्रव्यसं. और शरीरनामकर्म के उदय से पाये हुये पुद्गल३७)। ३. निश्चयरलत्रयात्मककारणसमयसाररूपो स्कन्धों को कर्म और नोकर्मरूप परिणमाने की शक्ति xxx य आत्मनः परिणामः Xxx सर्वस्य होती है उसे भावयोग कहते हैं। द्रव्य-भावरूपमोहनीयादिघातिचतुष्टयकर्मणो यः भावलिङ्ग-१. नोकषायोदयापादितवृत्ति भावक्षयहेतुरिति। xxx स भावमोक्षः ॥ (बृ. लिङ्गम् । (स. सि. २-५२) । २. भावलिङ्गमात्मद्रष्यसं. टी. ३७, पृ. १३५) । ४. कर्म निर्मूलनसमर्थः परिणामः स्त्री-पुं-नपुंसकान्योन्यामिलाषलक्षणः । शुद्धात्मोपलब्धिरूपजीवपरिणामो भावमोक्षः । (त. वा. २. ६.३); नोकषायोदयाद् भावलिङ्गम् । (पंचा. का. जय. वृ. १०८)। ५. कर्मक्षयाय यो (त. वा. २, ५२, १)। ३. भावलिङ्गं ज्ञान-दर्शनभावो भावमोक्षो भवत्यसौ । (भावसं. वाम, चारित्राणि । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-४६, पृ. ३६१)। ६. सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिर्बोधमती कृत्स्नकर्म- २८९); भावलिङ्गं श्रुतज्ञान-क्षायिकसम्यक्त्व-चरलयहेतुः । ज्ञेयः स भावमोक्षः कर्मक्षयजा विशुद्धिरथ णानि । (त. भा. सिद्ध. वृ. १०-७, पृ. ३०८)। च स्यात् ॥ (अध्यात्मक. ४-१५) । ७. भावमोक्ष- १ नोकषाय के उदय से जो स्त्री-पुरुषादि की अभिस्तु तद्धेतुरात्मा रत्नत्रयान्वयी । (अध्यात्मसार लाषास्वरूप प्रवृत्ति होती है उसे भावलिङ्ग कहा १८-१७८)। जाता है । ३ मुनिजन का भावलिङ्ग ज्ञान, दर्शन १ समस्त कर्मों के क्षय को भावमोक्ष कहते हैं। और चारित्ररूप माना जाता है। २. जो प्रात्मा का परिणाम समस्त कर्मों के क्षय - भावलिङ्गी-देहादिसंगरहियो माणकसाएहि सयका कारण है उसे भावमोक्ष कहा जाता है। लपरिचत्तो। अप्पा अप्पम्मि रो स भावलिंगी भावमोह-द्विविधस्यापि मोहस्य पौद्गलिकस्य हवे साहू ॥ (भावप्रा. ५६)। कर्मण:। उदयादात्मनो भावो भावमोहः स उच्यते ॥ जो जीव शरीर प्रादि रूप परिग्रह से-तद्विषयक (पंचाध्या. २-१०६.)। ममत्वभाव से-रहित होता हुआ मानादि कषायों दोनों प्रकार के पौद्गलिक मोह कर्म के उदय से को पूर्ण रूप से छोड़ चुका है तथा प्रात्मस्वरूप में जो मात्मा का भाव होता है उसे भावमोह कहते लीन रहता है उसे भावलिंगी साधु जानना चाहिए। भावलेश्या-१. भावलेश्या कषायोदयरजिता भावयुति-कोह-माण-माया-लोहादीहि सह मेलणं योगप्रवृत्तिः । (त. वा. २, ६, ८) । २. भावलेस्सा भावजुडी णाम । (पव. पु. १३, पृ. ३४६)। दुविहा आगम-णोआगमभेएण । आगमभावलेस्सा कोष, मान, माया और लोभ मादि के साथ जो सुगमा। नोागमभावलेस्सा मिच्छत्तासंजमकसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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