SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावप्रतिक्रमण] ८४८, जैन-लक्षणावलो [भावबन्ध जिस प्रकार अन्धकार से अन्ध हुए प्राणियों के लिए वानाम् उत्कृष्ट: केवलिनः। (त. वा. ३, ३८, प्रकाश दीप-लोकप्रसिद्ध दीपक-उससे प्रकाशित ४)। ३. भवनं भूतिर्वा भावो वर्णादिज्ञानादि, होने योग्य वस्तु को प्रकाशित करता है उसी प्रकार प्रमितिः प्रमीयते अनेन प्रमाणोतीति वा प्रमाणम्, प्रज्ञान से मढ़ता को प्राप्त हए जीवों के लिए ज्ञान ततश्च भाव एव प्रमाणं भावप्रमाणम। (अनयो. भी कि वस्तुबोध कराता है इसी से उसे भाव. हरि. व.पृ. ६६)। ४. भावपमाणं णाम णाणं । प्रकाश-दीप कहा जाता है। (धव. पु. ३, पृ. ३२)। भावप्रतिक्रमण - राग-द्वेषाद्याश्रितातीचारावर्तनं १ द्रव्य, क्षेत्र और काल के प्राश्रय से होने वाले भावप्रतिक्रमणम् । (मूला. वृ. ७-११५) । परिज्ञान का नाम भावप्रमाण है। २ साकार और राग-द्वेष के प्राश्रित अतिचार से रहित होना, इसका अनाकार उपयोग को भावप्रमाण कहते हैं। वह नाम भावप्रतिक्रमण है। जघन्य सूक्ष्म निगोदिया जीव के, मध्यम अन्य जीवों भावप्रतिसेवना–यस्तु जीवस्य तथा तथा प्रति- के और उत्कृष्ट केवली के होता है। घेवकत्वपरिणामः, सा भावरूपा प्रतिसेवना। (व्यव. भावप्राण-१. चित्सामान्यान्वयिनो भावप्राणाः । भा. मलय. व. पी. १-३६, पृ. १६)। (पंचा. अमृत. वृ. ३०)। २. पुद्गलसामान्यानुजीव का जो प्रतिसेवन करने रूप परिणाम होता है विधायी चित्परिणामो भावप्राणाः । (मन.ध. स्वो. उसे भावरूप प्रतिसेवना कहते हैं। टी. ४-२२)। भावप्रतिसेवा-१. दर्पः प्रमादः अनाभोगः भयं १जो प्राण सामान्य चैतन्व के अविनाभावी हैं प्रदोषः इत्यादिकेषु परिणामेषु प्रवृत्तिर्भावसेवा। उन्हें भावप्राण कहते हैं। २ पुद्गलसामान्य के (भ. प्रा. विजयो. ४५०) । २. भावं दर्प-प्रमादाना- अनुसरण करने वाले चैतन्य परिणाम को भावप्राण भोगभयाभि[त्मि] का भावप्रतिसेवा । (भ. पा. कहा जाता है । मूला. ४५०)। भावबन्ध-१. उवयोगमयो जीवो मज्झदि रज्जे१ अभिमान, प्रमाद, अनाभोग, भय और प्रदोष दि वा पदुस्सेदि । पप्पा विविध विसए जो हि पूणो इत्यादि परिणामों में जो प्रवृत्ति होती है उसे भाव. तेहिं संबंधो ।। (प्रव. सा. २-८३) । २. तत्कृतः प्रतिसेवा कहते हैं। क्रोधादिपरिणामवशीकृतो भावबन्धः। (त. वा. २, भावप्रत्याख्यान-- १. एतद्विपर्ययाद्भावप्रत्या- १०,२)। ३. अयमात्मा साकार-निराकारपरिच्छेख्यानं जिनोदितम् । सम्यक्चारित्ररूपत्वानियमान्म- दात्मकत्वात्परिच्छेद्यतामापद्यमानमर्थजातं येनैव मोहक्तिसाधनम् ॥ (प्रष्टक. ८-७) । २. भावोऽशुभ- रूपेण रागरूपेण द्वेषरूपेण वा भावेन पश्यति परिणामस्तं न निर्वर्तयिष्यामि इति संकल्पकरणं जानाति च तेनैवोपरज्यत एव । योऽयमुपरागः स भावप्रत्याख्यानम् । (भ. प्रा. विजयो. ११६)। खलु स्निग्ध-रूक्षत्वस्थानीयो भावबन्धः । (प्रव. सा. ३. भावस्य सावद्ययोगस्य प्रत्याख्यानं भावप्रत्याख्या- प्रमत.व. २-८४)। ४. बज्झदि कम्म जेण दू नम्, भावतो वा शुभात् परिणामात् प्रत्याख्यानम्, चेदणभावेण भावबन्धो सो । (द्रव्यसं. ३२)। भाव एव वा सावद्ययोगविरतिलक्षणः प्रत्याख्यानं ५. समस्तकर्मबन्धविध्वंसनसमर्थाखण्डकप्रत्यक्षप्रतिभावप्रत्याख्यानम् । (प्राव. नि. मलय. ७. १०५३, भासमयपरमचैतन्यविलासलक्षणज्ञानगुणस्य अभेदनयेपृ. ५७२)। नानन्तज्ञानादिगुणाधारभूतपरमात्मनो वा सम्बन्धिनी १ द्रव्यप्रत्याख्यान से विपरीत जो सम्यक्चारित्र. या तु निर्मलानुभूतिस्तद्विपक्षभूतेन मिथ्यात्व-रागारूप परिणाम से प्रत्याख्यान किया जाता है उसे दिपरिणतिरूपेण वाऽशुद्धचेतनभावेन परिणामेन भावप्रत्याख्यान कहा गया है। बध्यते ज्ञानावरणादि कर्म येन भावेन स भावबन्धः । भावप्रमाण-१. तिण्हं (दव्व-खेत्त-कालाणं) पि (बृ. द्रव्यसं. टी. ३२) । ६. प्रकृत्यादिबन्धशून्यअधिगमो भावपमाणं । (षटखं.१,२, ५--धव. पु. परमात्मपदार्थप्रतिकलो मिथ्यात्व-रागादिस्निग्धपरि३, पृ. ३८)। २. भावप्रमाणमुपयोगः साकारा- णामो भावबन्धः । (पंचा. का. जय. वृ. १०८)। नाकारभेदः जघन्यः सूक्ष्मनिगोतस्य मध्यमोऽन्यजी- ७. द्रव्यास्रवजमिथ्यात्व-योगाविरमणादिभिः । नत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy