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________________ भावनिक्षेप ८४५, जैन-लक्षणावली [भावपरिवर्तन भावः । (स. सि. १-५; धव. पु. १, पृ. २६)। संवरपूर्विका भावनिर्जरा। (पंचा. का. जय. वृ. २. वर्तमानतत्पर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भावः। वर्तमानेन १०८)। ६. रागादीनां विभावानां विश्लेषो भावतेन जीवन-सम्यग्दर्शनपर्यायेणोपलक्षितं द्रव्यं भाव-निर्जरा। (प्राचा. सा. ३-३५)। ७. आत्मनः जीवो भावसन्यग्दर्शनमिति चोच्यते । (त. वा. १, ५, शुद्धभावेन गलत्येतत्पुराकृतम् । वेगाद् भुक्तरसं कर्म ८) । ३. तथोपयोगलक्षणो भावनिक्षेपः । (लघीय. सा भवेद्भावनिर्जरा ॥ (जम्बू च. १३-१२७) । स्वो. वृ. ७४)। ४. बट्टमाणपज्जाएण उबलक्खियं ८. सा शुद्धात्मोपलब्धः स्वसमयवपुषा निर्जरा भावदव्वं भावो णाम। (जयध. १, पृ. २६०)। संज्ञा नाम्ना भेदोऽनयोः स्यात्करणविगतः कार्यनाश५. वर्तमानेन यत्नेन पर्यायेणोपलक्षितम् । द्रव्यं प्रसिद्धः ।। (अध्यात्मक. ४-६)। ६. तस्माद् ज्ञानभवति भावं तं वदन्ति जिनपुङ्गवाः ॥ (त. सा. मयः शुद्धस्तपस्वी भावनिर्जरा । (अध्यात्मसार १-१३)। ६. तत्कालपर्ययाक्रान्तं वस्तु भावो विधी- १८-१६५)। यते ॥ (उपासका. ८२७, परमाध्या. १-६)। १ सम्यग्ज्ञानादि के उपदेश व अनुष्ठानपूर्वक जो ७. तथैवोपयोगपरिणामलक्षणो भावनिक्षेपः। (सि- कर्म प्रात्मा से पृथक होते हैं, इसे भावनिर्जरा कहते द्धिवि. वृ. १२-२, पृ. ७३६) । ८. द्रव्यमेव वर्त- हैं । २ पुद्गलों को कर्मत्व पर्याय का विनाश होना, मानपर्यायसहित भावः । (त. वृत्ति श्रुत. १-५)। इसका नाम भावनिर्जरा है।। ६. तत्पर्यायो भावो यथा जिनः समवसरणसंस्थि- भावपक्व-संजम-चरित्तजोगा उग्गमसोही य तिक: । घातिचतुष्टयरहितो ज्ञानचतुष्टययुतो हि भावपक्कं तु । अन्नो वि य आएसो निरुवक्कमजीवदिव्यवपुः ।। (पंचाध्या. १-७४४)। मरणं तु ॥ (बृहत्क. भा. १०३५)। १ वर्तमान विवक्षित पर्याय से उपलक्षित द्रव्य को प्रांखों से देखने प्रादि रूप संयमयोग, मूल एवं उत्तर भावनिक्षेप कहते हैं। गुण रूप चारित्र और उद्गमदोषों को शुद्धि को -भावनिद्रा तु ज्ञान-दर्शन-चरित्रशुन्य- भावपक्व कहते हैं। अन्य भी आदेश (उपदेश) ता। (सूत्रकृ. नि. शी. वृ. ४२, पृ. ५६)। हैं-जिस जीव ने जितनी प्रायु बांधी है उस सब ज्ञान, दर्शन और चारित्र से रहित होने का नाम का पालन करके निरूपक्रमायष्क जीव का जो भावनिद्रा है। मरण होता है उसे भावपक्व जानना चाहिए। भावनिबन्धन.---.-"ज दव्वं भावस्य पालंबणमाहारो भावपरिक्षेप-नच्चा नरवइणो सत्त-सार-बद्धी होदितं भावनिबंधणं जहा लोहस्स हिरण्ण-सूवण्णा- परक्कमविसेसे । भावेण परिक्खित्तं तेण तगन्ने परित दीणि णिबंधण, ताणि अस्सिऊण तदुप्पत्तिदंसणादो हरंति ।। (बृहत्क. भा. ११२५) । xxx I (धव. पु. १५, पृ. ३)। किसी राजा के सत्त्व (धैर्य), सार (सेना व कोश जो द्रव्य भाव का पालम्बन या प्राधार होता है प्रादि), बुद्धि और पराक्रम को जानकर जो अन्य उसे भावनिबन्धन कहा जाता है। जैसे लोभ के राजा उसके नगर को छोड़ देते हैं, इसे उसके निबन्धन चांदी-सोना आदि। सत्त्व व सार प्रादि रूप भाव से परिक्षिप्त जानना भावनिर्जरा--१. भावनिर्जरा कर्मपरिशाट: सम्य- चाहिए। ग्ज्ञानाद्युपदेशानुष्ठानपूर्वकः । (त. भा. सिद्ध. वृ. भावपरिणाम-भावस्य जीवाजीवादिसम्बन्धिन। १-५, पृ. ४६) । २. भावनिर्जरा नाम कर्मत्वपर्या- परिणामाः तेन तेन अज्ञानात् ज्ञानं नीलाल्लोहिता यविगमः पुद्गलानाम् । (भ. प्रा. विजयो. १८४७)। मित्यादिप्रकारेण भवनानि भावपरिणामाः। (माव. ३. जहकालेण तवेण य भूत्तरसं कम्मपुग्गलं जेण। भा. मलय. व. २०४, पृ. ५९४)। दि णेया xxx ॥ (द्रव्यसं.३६)। जीव-अजीव प्रादि सम्बन्धी भाव के परिणामों को ४. निर्विकारपरमचैतन्यचिच्चमत्कारानभतिसञ्जा- -उस उस प्रकार से, जैसे प्रज्ञान से ज्ञान व नील तसहजानन्दस्वभावसूखामृतरसास्वादरूपोभावो भाव- से लाल, होने वाले परिवर्तनों कोनिर्जरा । (बृ. द्रव्यसं. टी. ३६) । ५. कर्मशक्ति- कहते हैं। शातनसमर्थो द्वादशतपोभिवृद्धि गतः शुद्धोपयोगः भावपरिवर्तन----१. पञ्चेन्द्रियः संज्ञी पर्याप्तको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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