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________________ बन्धस्थान] ८०८, जैन-लक्षणावली - [बहिरङ्ग धर्मध्यान को प्राप्त बन्ध के विकल्पों का नाम बन्धविधान है। बलमानवशार्तमरण-वृक्ष-पर्वताद्युत्पाटनक्षमोऽहं बन्धस्थान-एगजीवम्मि एक्कम्हि समए जो दीसदि योधवानहं मित्राणां च बलं ममास्ति इति बलाभिकम्माणुभागो तं ठाणं णाम ।xxx तत्थ जं मानोद्वहनान्मानवशार्तमरणम् । (भ. प्रा. विजयो. बंधेण णिप्फण्णं तं बंधट्ठाणं णाम । पुव्वबंधाणुभागे २५) । घादिज्जमाणे जं बंधाणुभागेण सरिसं होदूण पददि मैं वृक्ष और पर्वत आदि के उखाड़ने में समर्थ व तं पि बंधट्ठाणं चेव, तस्सरिसअणुभागबंधुवलंभादो। सुभट हूं तथा मेरे पास मित्रों का भी बल है, इस (धव. पु. १२, पृ. १११-११२) । प्रकार बल के अभिमानपूर्वक जो मरण होता है वह एक जीव के एक समय में जो अनुभाग दिखता है बलमानवशार्तमरण कहलाता है। उसका नाम स्थान है। बन्ध से जो स्थान निर्मित बलवाहनकथा-बलं हस्त्यादि, वाहनं वेगसरादि, होता है वह बन्धस्थान कहलाता है। पूर्वबद्ध अनु- तत्कथा बलवाहनकथा । यथा-हेसंतहयं गज्जंतभाग का घात करते समय जो बन्धानुभाग के मयगलं घणघणंतरहलक्खं । कस्सऽन्नस्स वि सेन्नं समान स्थान होता है उसे भी बन्धस्थान ही कहा णिन्नासियसत्तुसिन्नं भो॥ (स्थना. अभय. वृ. जाता है। २८२, पृ. २००)। बन्धोत्कृष्ट-यासां उत्तरप्रकृतीनां 'मूलपगईणं' हाथी प्रादि का नाम बल और वेगसर प्रादि का ति मूलप्रकृतीनामनुसारेण 'बंधनिमित्तो' बन्धहेतुकः नाम वाहन है, इनकी चर्चा को बल-वाहनकथा उत्कृष्टो बन्ध:-स्थितिबन्धो भवति ता बन्धोत्कृ- कहा जाता है। ष्टाः । इदमुक्तं भवति–यावती मूलप्रकृतीनां उत्कृ- बलिशेषदोष--१. जक्खय-णागादीणं बलिसेसं स ष्टस्थितिरभिहिता तावत्येव यासामत्तरप्रकृतीनां बलित्ति पण्णत्तं । संजदमागमणह्र बलियम्म वा बन्धनिमित्ता उत्कृष्टा स्थितिर्भवति ता बन्धोत्कृष्टाः। बलि जाणो ॥ (मला. ६-१२) । २. यक्षादिबलि(पंचसं. मलय. वृ. सं. क. ३६)। शेषोऽर्चासावा वा यतो बलिः । (अन. ध. ५, मूल प्रकृतियों की जितनी उत्कृष्ट स्थिति बतलाई १२)। ३. यक्ष-नाग-मातृका-कुलदेवताद्यर्थं कृतं गृह गई है उतनी ही जिन उत्तर प्रकृतियों की बन्धनि- तेम्यश्च यथास्वं दत्तं तद्दत्तावशिष्टं यतिभ्यो दीयमानं मित्तक उत्कृष्ट स्थिति होती है उन्हें बन्धोत्कृष्ट बलिरित्युच्यते । (भ. प्रा. मूला. २३०) । ४. यक्षाप्रकृति कहते हैं। दीनां बलिदानोद्घतमन्नं बलिरुच्यते, अथवा संयताबल-१. द्रविणदान-प्रियभाषणाभ्यामरातिनिवार- गमनार्थं बलिकरणं बलिः । (भावप्रा. टी. ६६)। णेन यद्धि हितं स्वामिनं सर्वावस्थासु बलते संवृणो- यक्ष व नाग आदि के लिए जो बलि (उपहार) दी तीति बलम् । (नीतिवा. २२-१, पृ. २०७)। गई है उससे शेष रहे भाग को मुनि के लिए देना, २. बलं जम्बूद्वीपपरावर्तनलक्षणं सत्त्वं प्रतीन्द्रादिकं यह बलिशेषनामक उत्पादनदोष माना गया है । देवसैन्यम् अतिमनोहरं रूपं वा विद्यतेऽस्येति बलः ॥ अथवा साधुनों के आगमानार्थ किये जाने वाले (त्रि. सा. टी. १)। ३.xxx तथा च शुक्रः बलिकर्म को-पूजा प्रादि को-बलिदोष जानना -धनेन प्रियसंभाषैर्यतश्चैव पुराजितम् । प्रापद्भ्यः चाहिए। स्वामिनं रक्षेत्ततो बलमिति स्मृतम् । (नीतिवा. बहिरङ्गच्छेद-परप्राणव्यपरोपो बहिरङ्गः(छेदः)। टी. २२-१ उद्.)। (प्रव. सा. अमृ. वृ. ३-१७) । १ धनदान और प्रियभाषण के द्वारा जो शत्र का दूसरों के प्राणों का विघात करना, इसे बहिरंगनिवारण करते हुए सभी अवस्थानों में स्वामी को च्छेद कहा जाता है। बल प्रदान करता है-उसका हित करता है- बहिरङ्ग धर्मध्यान--पञ्चपरमेष्ठिभक्त्यादि-तदउसका नाम बल (सैन्य) है । २ जम्बूद्वीप के परा- नुकूलशुभानुष्ठानं पुनर्बहिरङ्गधर्मध्यानम् । (बृ. वर्तनरूप बल, प्रतीन्द्रादिरूप सैन्यबल अथवा अति- द्रव्यसं. टी. ४८, पृ. १८५)। शय मनोहर रूप बल जिसके है उस इन्द्र को बल पांच परमेष्ठियों की भक्ति प्रादि के साथ उनके अनकहा जाता है। कूल उत्तम पाचरण का नाम बहिरंग धर्मध्यान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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