SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना प्रस्तुत 'जैन लक्षणावली' भाग १ की प्रस्तावना में उस भाग में संग्रहीत लक्ष्य शब्दों में से कुछ के अन्तर्गत विशिष्ट लक्षणों के सम्बन्ध में प्रालोचनात्मक दृष्टि से 'लक्षण वैशिष्ट्य' शीर्षक में पू. ७०८५ में विचार किया गया है । अब यहां भाग २ व ३ में संग्रहीत लक्ष्य - शब्दों में से कुछ चुने हुए लक्ष्य शब्दों के अन्तर्गत विशिष्ट लक्षणों के सम्बन्ध में प्रकाश डाला जा रहा है । यह स्मरण रहे कि विवक्षित लक्ष्य शब्द के अन्तर्गत जितने ग्रन्थों से लक्षणों का संग्रह किया जा सका है उनके अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में भी जो पीछे प्रकृत लक्षण दृष्टिगत हुए हैं, समीक्षात्मक दृष्टि से विचार करते हुए यहां उन लक्षणों को तथा उनके पूर्वापर सम्बन्ध को भी विचार कोटि में ले लिया गया है । कपित्थ दोष -- इसका लक्षण मूलाचार वृत्ति (७-१७) और प्रवचनसारोद्धार आदि में उपलब्ध होता है | मुलाचार वृत्ति के रचयिता श्रा. वसुनन्दी और प्रवचनसारोद्धार के निर्माता नेमिचन्द्र हैं । दोनों का समय वि.की १२वीं शती रहा दिखता है । उनमें पूर्वोत्तर समयवर्ती कौन है, इसका निर्णय नहीं किया जा सकता । वसुनन्दी के द्वारा जो उसका लक्षण वहां निवद्ध किया गया उसमें कहा गया है कि जो कपित्थ ( कैंथ ) के फल के समान मुट्ठी को बांधकर कायोत्सर्ग से स्थित होता है वह कायोत्सर्ग के इस कपित्थ नामक दोष का भागी होता है । प्रवचन सारोद्धार (२५६ ) में उसके विषय में कहा गया है कि जो षट्पदों (मधुमक्खियों) के भय से शरीर को कपित्थ के समान वस्त्र से वेष्टित करके कायोत्सर्ग में स्थित होता है वह प्रकृत कपित्थ दोष का भाजन होता है। इसकी वृत्ति में और योगशास्त्र के स्वो विवरण में भी मतान्तर को प्रगट करते हुए किंचित् अभिप्रायभेद के साथ यह विशेष निर्देश किया गया है कि मधुमक्खियों के भय से कपित्थ के समान चोलपट्ट से शरीर को ढककर व उसे मुट्ठी में ग्रहण करके अथवा जंघा प्रादि के मध्य में करके स्थित होना, यह कपित्थदोष का लक्षण है। अन्य श्राचार्यों के मत का उल्लेख करते हुए यहां यह भी निर्देश किया गया है— इसी प्रकार मुट्ठी को बांधकर स्थित होना, इसे अन्य आचार्य कपित्थ दोष का लक्षण कहते हैं । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में चूंकि प्रायः वस्त्र का विधान है, अतः वहां उसका उक्त प्रकार का लक्षण संगत ही प्रतीत होता है । मूला. वृत्ति और अनगारधर्मामृत में जो लक्षण निर्दिष्ट किया गया है उसका श्राधार सम्भवतः शीत आदि की वेदना रहा होगा । पर्व - पग- ये काल विशेष हैं । इनके विषय में भाग १ की प्रस्तावना पृ. ७१-७२ पर 'टांग' शब्द को देखिये । काङ्क्षा व कांक्षा यह सम्यग्दर्शन का एक अतिचार | तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (७-१८) में इसके लक्षण का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि इस लोक और पर लोक सम्बन्धी विषयों की इच्छा करना, इसका नाम कांक्षा है । हरिभद्र सूरि और सिद्धसेन गणि विरचित उसकी वृत्तियों में विकल्प रूप में यह भी कहा गया है - प्रथवा विभिन्न दर्शनों (सम्प्रदायों) को स्वीकार करना, इसे काङ्क्षा कहा जाता है । इसकी पुष्टि में वहां 'तथा चागमः' ऐसा निर्देश करते हुए 'कंखा प्रण्णण्णदंसणग्गाहो' इस श्रागमवाक्य को भी उद्धृत किया गया है । यह श्रागमवाक्य श्रावकप्रज्ञप्ति की ८७वीं गाथा के अन्तर्गत है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy