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________________ फिरिक्की] ८०२, जैन-लक्षणावली [बन्ध फिरिक्की-देखो गिल्ली । चुंदेण वठ्ठलागारेण चरणः । (धर्मसं. मान. ३-५६, पृ. १५२) । घडिदणेमि-तुंबाधारसरलट्टकट्टा फिरिक्की णाम । १ जो निर्ग्रन्थता (मुनिधर्म) पर आरूढ होकर (धव. पु. १४, पृ. ३८)। अखण्डित रूपमें व्रतों का पालन करते हुए शरीर और गोल चुद से सम्बद्ध नेमि (पहिये का घेरा) और उपकरणों को स्वच्छता का अनुसरण करते हैं तथा तुम्ब (गाड़ी का मध्य) की प्राधारभत सीधी पाठ जिनका परिवार से मोह नहीं छटा है वे साध बकुश लकड़ियों से युक्त गाड़ी को फिरक्को कहा जाता कहलाते हैं। बकुश शब्द का अर्थ अनेक वर्ण वाला है। इसका दूसरा नाम गिल्ली भी है। होता है। तदनुसार अभिप्राय यह हुआ कि जो बकुश -१. नैग्रंन्थ्यं प्रति स्थिता अखण्डितव्रताः अनेक प्रकार के मोह से संयुक्त होते हुए विचित्र शरीरोपकरणविभूषानुवतिनोऽविविक्तपरिवारा मोह- संयम वाले होते हैं, उन्हें बकुश मुनि जानना चाहिए। शबलयुक्ता बकुशाः । शबलपर्यायवाची बकुशशब्दः । २ जो निर्ग्रन्थता के प्रति प्रस्थान कर चुके हैं(स. सि. ६-४६) । २. नैर्ग्रन्थ्यं प्रति प्रस्थिता: मुनिधर्म को स्वीकार कर चुके हैं, साथ ही शरीर शरीरोपकरणविभूषानुवर्तिनः ऋद्धि-यशस्कामाः सात- और उपकरणों की सुन्दरता के अभिलाषी हैं, गौरवाश्रिता अविविक्तपरिवारा: छेदशबलयुक्ताः ऋद्धि एवं यश के इच्छुक हैं, सातगौरव-सुखनिर्ग्रन्था बकुशाः । (त. भा. ६-४८)। ३. अख- शीलता के प्राश्रित हैं; जांघों के घिसने, तेल आदि ण्डितव्रताः काया करणानुगाः । अविविक्तपरि- से शरीर का मार्जन करने व बालों को कैची से वारा: शबला बकुशाः स्मृताः ।। बकुश: सोपकरणो काटे गये के समान रखने प्रादि रूप जिनका परिबहुपकरणप्रियः । शरीरबकुशः कायसंस्कारं प्रति- वार संयम के प्रतिकल है; तथा जो छेद प्रायश्चित्त ।। (ह. पु. ६४-६० व ७२)। ४. अखण्डित- के योग्य प्रतीचार जनित विचित्रता से युक्त होते व्रताः शरीरसंस्कारद्धि-सुख-यशोविभूतिप्रवणा बकु- हैं उन्हें बकुश कहा जाता है। शाः। नैर्ग्रन्थ्यं प्रस्थिताः अखण्डितव्रताः शरीरोप- बद्धप्रलाप-भाषा बद्धप्रलापाख्या चतुर्वर्गविवजिकरणविभूषानुवर्तिनः ऋद्धि-यशस्कामाः सातगौरवा- ता । (ह. पु. १०-६३)। श्रिताः अविविक्तपरिवारा: छेदशबलयुक्ता: बकुशाः। चतुर्वर्ग से रहित-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन शबलपर्यायवाची बकुशशब्दः ॥ (त. वा. ६, ४६, चार पुरुषार्थों के वर्णन से रहित-भाषा का नाम २)। ५. अखण्डितव्रताः शरीरसंस्कारद्धि-सुख-यशो- बद्धप्रलाप है। विभूतिप्रवणाः बकुशाः, छेदशबलयुक्तत्वात् । बकुश- बद्धरागवेदनीयपुद्गल - निर्वृत्तबन्धपरिणामाः शब्दो हि शबलपर्यायवाचीह । (त. श्लो. ६-४६)। सत्कर्मतया स्थिता जीवेनाऽऽत्मसात्कृता बद्धाः । ६. नैर्ग्रन्थ्यमुपस्थिता अखण्डितव्रताः शरीरोपकरण- (प्राव. नि. हरि. वृ. ६१८, पृ. ३८७) । विभूषणानुवर्तिनो वृद्धि-यशःकामा: सातगौरवाश्रिता जो रागवेदनीयपुद्गल (कर्मद्रव्यराग) बन्ध परिप्रविविक्तपरदाराश्च परिवाराश्च] छेदशबलयूक्ता णाम को प्राप्त होकर सत्कर्मरूप से स्थित होते बकुशाः । शबलपर्यायवाची बकुशशब्द इति । (चा. हुए जीव के द्वारा प्रात्मसात् कर लिए गये हैं--- सा. पृ. ४५)। ७. उवगरण-देहचोक्खा रिद्धी-जसगा- जीव के प्रात्मप्रदेशों से एकक्षेत्रावगाहरूप में रवा सिया निच्चं । बहुसवलछेयजुत्ता णिग्गंथा वाउसा सम्बद्ध हो चुके हैं उन्हें बद्धरागवेदनीयपुद्गल भणिया ।। (धर्मरत्नप्र. १३५, पृ.८४ उद्.); बकुशा: कहा जाता है। शरीरोपकरणविभूषाकारिणः । (धर्मरत्नप्र. १३५, बद्धश्रुत-xxx बद्धं तु दुवालसंगनिद्दिढें । पृ. ८४)। ८. बकुशत्वं कश्मलचारित्रत्वम् । (प्राव. नि. १०२०)। (जीतक. चू. वि. व्या. पृ. ४३) । ६. निर्ग्रन्थ- गद्य-पद्यरूप बन्धन से बद्ध प्राचारादिरूप द्वादशांग त्वे स्थिता अविध्वस्तव्रताः शरीरोपकरणद्धि-भूषण- श्रुत बद्धश्रुत कहलाता है। यह जीवभावकरण का यशःसुखविभूत्याकांक्षिगः अविविक्त परिच्छिदानुमो- एक भेद है । दनशबलयुक्ता ये ते बकुशाः उच्यन्ते । (त. वृत्ति बन्ध---देखो बन्धन । १. जं सुहमसुहमुदिण्णं भावं श्रुत. ६-४६) । १०. बकुशः शुद्धयशुद्धिव्यतिकीर्ण- रत्तो करेदि जदि अप्पा । सो तेण हवदि बंधी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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