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________________ प्रारम्भक्रिया ७९७, जैन-लक्षणावली [प्रासुक जल हता । णियमा अणिहारं तं सिया य णीहारमुव- अथवा भाजनादीनां स्थानान्तरकरणं वा प्राविष्कृतसग्गे ।। (भ. प्रा. २०६८-६९) । २. प्रात्मोपकार- मुच्यते । (भावप्रा. टी. ६६) । निरपेक्षं प्रायोपगमनम्। (धव. पु. १, पृ. २३)। १ साधु के निमित्त से घर में प्रकाश करना तथा ३. स-पगेवयारहीण मरणं पायोगमणमिदि। (गो. वर्तनों आदि का संस्कार करना-भस्म आदि से क. ६१)। ४. स्व-परोपचाररहितं तन्मरणं प्रायोप- उन्हें स्वच्छ करना-और उन्हें स्थान्तरित करना, गमन मिति । (गो. क. जी. प्र. टी. ६१)। ५. उभ- यह प्राविष्कृत नाम का एक उद्गमदोष है। योपकार- (स्व-परोपकार-) निरपेक्षं प्रायोपगमनम्। प्रासाद-१. पक्कसइला सइला यावासा पासादा (कातिके. टी. ४६७)। णाम । (धव. पु. १४, पृ. ३६)। २. प्रासाद: स्व१ पण्डितमरण में पाराधक शरीर से ममत्व गतायामापेक्षया द्विगुणोच्छ्यः । (विपाकसू. अभय. को छोड़कर उसे जहां जिस प्रकार से रखता है वृ. २-१, पृ. ५६)। ३. राज्ञां देवतानां च भवजीवन पर्यन्त उसे वहीं पर स्थिर -हलन-चलन नानि प्रासादाः, उत्सेधबहुला वा प्रासादा:, ते चोभक्रिया से रहित--रखता है। इस प्रकार स्व और येऽपि पर्यन्तशिवराः। (जीवाजी. मलय. व. १४७)। पर के प्रतीकार (सेवा-शुश्रूषा) से रहित जो उसका ४. नरेन्द्राध्यासितः सप्तभूमादिराबासविशेषः प्रासामरण होता है उसे प्रायोपगमनमरण कहा जाता दः। (बृहत्क. क्षे. ८२६)। है। पादपोपगमन और पादोपगमन ये इसी के नामा- २ जो भवन अपने अायाम की अपेक्षा ऊंचाई में न्तर हैं। दुगुना होता है वह प्रासाद कहलाता है। ३ राजाओं प्रारम्भक्रिया-देखो प्रारम्भक्रिया। प्राणिछेदन- और देवतानों के भवनों को प्रासाद कहा जाता है, भेदन-हिंसादिकर्मपरत्वं प्राणि छेदनादौ परेण विधीय- अथवा जो ऊंचाई में अधिक होते हैं उन्हें भी माने वा प्रमोदनं प्रारम्भक्रिया। (त. वत्ति श्रुत. प्रासाद जानना चाहिए, वे दोनों ही शिखरों से सुशोभित होते हैं। प्राणियों के छेदन, भेदन और हनन आदि क्रियाओं प्रासुक--१. पगदा प्रोसरिदा पासवा जम्हा तं में स्वयं प्रवृत्त होने तथा अन्य के उनमें प्रवृत्त होने पासुग्रं, अधवा जं णिरवज्ज तं पासग्रं। कि? णाण. पर हषित होने को प्रारम्भक्रिया कहते हैं। दसण-चरित्तादि । (धव. पु. ८, पृ. ८७). प्रावचन-१. सुयधम्म तित्थ मग्गो पावयणं पव- २. अतिप्रशस्तं मनोहरं हरितकायात्मकं क-] यणं च एगट्ठा। (प्राव. नि. १३०)। २. प्रगतं सूक्ष्मप्राणिसंचारागोचरं प्रामुकमित्यभिहितम् । (नि. अभिविधिना जीवादिषु पदार्थेषु वचनं प्रावचनम् । सा. टी. ६३)। (पाव. नि. हरि. व. १३०)। ३. प्रवचने प्रकृष्ट- १ जो कर्मानवों से रहित अथवा निष्कलंक है उसे शब्दकलापे भवं ज्ञानं द्रव्यश्रुतं वा प्रावचनं नाम। प्रासुक कहते हैं। ऐसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र (धव. पु. १३, पृ. २८०)। हो सकते हैं। २ जो अत्यन्त प्रशस्त, मनोहर एवं १ श्रुतधर्म, तीर्थ, मार्ग, प्रावचन और प्रवचन ये वनस्पतिकाय प्रादि सूक्ष्म जीवों के संचार से रहित समानार्थक शब्द हैं। २ जीवादि पदार्थविषयक होता है उसे प्रासुक कहा जाता है। वचन (श्रुत) को प्रावचन कहा जाता है। ३ प्रासुक जल-मुहूर्ताद् गालितं तोयं प्रासुकं प्रहरप्रकृष्ट शब्दसमूह में होने वाले ज्ञान को अथवा द्वयम् । उप्णोदकमहोरात्रं ततः सम्मूच्छितो भवेत् ॥ द्रव्यश्रुत को प्रावचन कहते हैं । तिल-तण्डुलतोयं च प्रासुकं भ्रामरीगृहे। न पानाय प्रावर्तित-देखो प्राभृतदोष । मतं तस्मान्मुखशुद्धिर्न जायते ॥ पाषाणोत्स्फुटितं प्राविष्कृत-देखो प्रादुष्कार दोष। १. गेहप्रकाश- तोयं घटीयंत्रेण ताडितम् । सद्यःसन्तप्तवापीनां करणं यत्प्राविष्कृतमीरितम्। संस्कारो भाजनादीनां प्रासुकं जलमश्नुते ॥ (रत्नमाला ६१-६३)। वा स्थानान्तरधारणम् ॥ (प्राचा. सा. ८-२६)। योग्य वस्त्र से छाना गया जल दो पहर तक प्रासुक २. भगवन्निदं मदीयं गृहं वर्तते, यवं गहप्रकाश- रहता है तथा गरम किया हुआ जल एक दिन-रात करणं भवति, निजगहस्य गृहिणा प्रकटनं क्रियते, प्रासुक रहता है, इसके पश्चात वह सम्मर्छन जीवों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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