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________________ प्रविद्धदोष ] ७८०, प्रविद्धदोष - १. पविद्धमणुवयारं जं श्रप्पितोणिजंतिम्रो होइ । जत्थ व तत्थ व उज्झइ कियकिच्चोवक्खरं चेव । ( प्रव. सारो. १५६ ) । २. प्रविद्धं चन्दनं ददत एव पलायनम् । (योगशा. स्वो विव. ३ - १३०, पृ. २३६) । ओ उपचार ( भक्ति) के विना ही अनियंत्रित -- अनवस्थितचित्त होकर गुरु की वन्दना करता हुआ समाप्ति के पूर्व ही उसे छोड़ कर चला जाता है वह प्रविद्ध नामक वन्दनादोष का भागी होता है । जैसे—कोई कुली किसी के वर्तनों को अन्य नगर में ले जाता है। वहां पहुंचने पर जब वर्तनों का स्वामी उससे यह कहता है कि थोड़ी देर ठहरो, मैं योग्य स्थान देखकर अभी आता हूं, तब उक्त कुली यह कहता है कि मुझे यहीं तक ले श्राने को कहा था, अब मैं रुक नहीं सकता; यह कहता हुआ वह प्रस्थान में ही वर्तनों को छोड़कर चला जाता है । इसी प्रकार उक्त वन्दना का क्रम जानना चाहिए । प्रविष्टदोष- देखो प्रविद्धदोष । १. प्रविष्ट: पंचपरमेष्ठिनात्यासन्नो भूत्वा यः करोति कृतिकर्म तस्य प्रविष्टदोषः । (मूला. वृ. ७ - १०६) । २. XX X श्रत्यासन्नभावः प्रविष्टं परमेष्ठिनाम् ॥ ( अन. ध. ८-१८) । १ जो पंच परमेष्ठियों के प्रत्यन्त निकट होकर कृतिकर्म करता है उसके कृतिकर्म का प्रविष्ट नाम का दोष उत्पन्न होता है । प्रवीचार - देखो प्रविचार | प्रवृत्ति - - १. सव्वत्थुवसमसारं तप्पालणमो पवत्ती उ ।। (योर्गाव. ५) । २. प्रवर्तनं प्रवृत्तिः अनुष्ठानरूपा परिशुद्धप्रतिपत्त्यनन्तरभाविनी तत्त्वविषयैव । ( षोडश. वृ. १६ - १४ ) । ३. प्रवृत्तिः यथायोगं वैयावृत्त्यादौ साधूनां प्रवर्तकः । ( श्राचारा. शी. बृ. २, १२७, पृ. ३२२) । ४. XXX प्रवृत्तिः पालनं परम् । (ज्ञा. सा. २७- ४ ) ; सम्यग्दर्शनादिगुणप्रवृद्धिभूतं क्रियाश्रुताभ्यासपालनं परम्परा उत्कृष्टा सा प्रवृत्तिः । ( ज्ञा. सा. टी. २७-४) । १. उपशम की प्रधानता से विधिपूर्वक स्थान व श्रालम्बन श्रादिरूप पांच प्रकार के योग का परिपालन करना, इसका नाम प्रवृत्ति है । ३ जो बलवीर्य के अनुसार अथवा योग्यता के अनुसार साधुनों जैन-लक्षणावली Jain Education International [ प्रव्रज्या को वैयावृत्ति श्रादि में प्रवृत्त कराता है उसे प्रवृत्ति ( प्रवर्तक) कहा जाता है । प्रव्रजित - प्रकर्षेण व्रजितो गतः प्रव्रजितः, ग्रारम्भपरिग्रहादिति गम्यते । ( दशवं. नि. हरि. वृ. २, १५८ ) । जो प्रारम्भ व परिग्रह से श्रतिशय हैं- सर्वथा उन्हें छोड़ चुका है, उसे जाता है । दूर जा चुका प्रव्रजित कहा प्रव्रज्या - १. X XX पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता । (बो. प्रा. २५); गिह- गंथ - मोहमुक्का वावीसपरीसहा जिकसाया । पावारंभविमुक्का पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ घण घण्ण-वत्थदाणं हिरण्ण-सयणासणाइ छत्ताइ । कुद्दाणविरहरहिया (?) पव्वज्जा एरिसा भणिया । सत्- मित्ते व समा पसंस- णिदाअलद्धि-लद्धिसमा । तण - कणए समभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ उत्तम मज्झिमगेहे दारि ईसरे निराक्खा । सव्वत्थ गिहिदपिंडा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ णिग्गंथा णिस्संगा णिम्माणासा राय णिद्दोसा । णिम्मम णिरहंकारा पव्वज्जा एरिसा भणिया || णिण्णेहा णिल्लोहा णिम्मोहा णिव्वियार णिक्कलुसा । णिब्भय णिरासभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया । जहजायरूवसरिसा अवलंबियभुत्र णिराउहा संता । परकियनिलयणिवासा पव्वज्जा एरिसा भणिया । उवसम-खम- दमजुत्ता सरीरसक्कारवज्जिया रुक्खा । मय-राय- दोसरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया || विवरीयमूढभावा पणट्टकम्मट्ठ णटुमिच्छत्ता । सम्मत्तगुणविसुद्धा पव्वज्जा एरिसा भणिया || तिलग्रोसत्तनिमित्तं समबाहिरगंथसंगहो णत्थि । पावज्ज हवइ एसा जह भणिया सव्वदरिसीहि । पसु - महिल-संढसंगं कुसीलसंग ण कुणइ विकहा । सभाय झाणजुत्ता पव्वज्जां एरिसा भणिया । तव वयगुणेहिं सुद्धा संजम सम्मत्तगुणविसुद्धा य । सुद्धा गुणेहिं सुद्धा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ ( बो. प्रा. ४५-५३, ५५ व ५७-५८ ) । २. प्राह विरइपरिणामो पव्वज्जा भावप्रो जिणाएसो । ( पंचव. १६४ ) ; विरतिपरिणामः सकलसावद्ययोगविनिवृत्तिरूपः प्रव्रज्या (पंचव. स्वो वृ. १६४) । १ गृह, परिग्रह व मोह से रहित; बाईस परीषहों से सहित; कषायों को जीतने वाली, पापजनक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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