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________________ प्रमादचर्या ] प्रमादचर्या - देखो प्रमादचरित । प्रमादाचरित - देखो प्रमादचरित । प्रमादाप्रमाद - प्रमादाप्रमादस्वरूप भेद-फल- विपाकप्रतिपादकमध्ययनं प्रमादाप्रमादम् । ( नन्दी. हरि. कृ. पृ. ६० ) । प्रमाद और अप्रमाद के स्वरूप, विपाक के प्रतिपादन करने वाले प्रमादाप्रमाद है । यह उत्कालिक है । ७७४, जैन-लक्षणावली भेद, फल और प्रध्ययन का नाम श्रुत के अन्तर्गत प्रमार्जन - १. प्रमार्जनमुपकरणोपकारः । मृदुनोपकरणेन यत् क्रियते प्रयोजनं तत् प्रमार्जनं प्रत्येतव्यम् । त, वा. ७, ३४, २) । २. प्रमार्जनमुपकरणोपकारः । (त. इलो. ७-३४) । ३. मृदुनोपकरणेन यत्क्रियते प्रयोजनं तत्प्रमार्जनम् । ( चा. सा. पृ. १२) । ४. प्रमार्जनं मृदुनोपकरणेन प्रतिलेखनम् । ( सा. ध. स्वो . टी. ५-४० ) । ५. कोमलोपकरणेन यत्प्रतिलेखनं क्रियते तत्प्रमार्जितम् । (त. वृत्ति श्रुत. ७-३४ ) । ६. प्रमार्जनं च मृदुभिः यथोपकरणैः कृतम् । उत्सर्गादान- संस्तरविषयं चोपबृंहणम् ॥ ( लाटीसं. ६, २०७) । १ जीवों के संरक्षणार्थ मृदु उपकरण ( वस्त्र आदि ) के द्वारा जो पुस्तक व कमण्डलु श्रादि उपकरणों के झाड़ने श्रादि रूप कार्य किया जाता है उसका नाम प्रमार्जन है । Jain Education International प्रमार्जनासंयम -- देखो प्रसृज्यसंयम । प्रेक्षितेऽपि स्थण्डिले रजोहरणादिना प्रमृज्य शयनासनादीन् कुर्वतः स्थण्डिलाच्च स्थण्डिलं संक्रामतः सचित्ताचित्त - मिश्रासु पृथिवीषु रजोऽवगुण्ठितौ चरणौ प्रमार्ण्य गच्छतो वा प्रमार्जनासंयमः । (योगशा. स्वो विव. ४-६३, पृ. ३१६ ) । शुद्ध भूमि के देख लेने पर भी रजोहरण आदि से प्रमार्जन करके सोने व बैठने प्रादि रूप काम के करने तथा एक शुद्ध भूमि से अन्य शुद्ध भूमि को प्राप्त होते हुए श्रथवा सचित्त, श्रचित्त व सचित्ताचित पृथिवी पर धूलि से आच्छादित चरणों का प्रमार्जन करके गंमन करने को प्रमार्जनासंयम कहते हैं । प्रमाजित - देखो प्रमार्जन | प्रमिति - व्युत्पत्ति-संशय-विपर्यासलक्षणाज्ञाननिवृत्तिः प्रमिति: । (सिद्धिवि. वृ. १ - २३, ५, ६६ ); प्रमितिः स्वार्थविनिश्चयः प्रज्ञाननिवृत्तिः साक्षात् [प्रमोदभावना प्रमाणस्य फलम् । (सिद्धिवि. वृ. १-२३. पू. ७ ) :प्रमितिः प्रमाणफलम् । ( सिद्धिवि. वृ. १-२३, पृ. १०० ) । अव्युत्पत्ति (विशेष ज्ञान का प्रभाव ), संशय और विपरीत ज्ञानस्वरूप अज्ञान के हट जाने का नाम प्रमिति है । प्रमृज्यसंयम — देखो प्रमार्जनासंयम । परित्यजतः (सिद्ध. वृ. 'प्रमृज्यसंयम') इति प्रेक्षिते स्थण्डिले जोहृत्या प्रमार्जनमनुविधाय स्थानादि कार्यम्, पथि वा गच्छत: सचित्त - (सिद्ध. वृ. 'सचित्ताचित्त'-) मिश्रपृथिवीकायरजोऽनुरंजितचरणस्य स्थण्डिलात् स्थण्डिलं कामतो (सिद्ध. वृ. 'संक्रामतो' ) ऽस्थण्डि लाद् वा स्थण्डिलं प्रमृज्य चरणौ संयमभाक्त्वमा(सिद्ध. वृ. 'म' - ) गार्यादिरहिते श्रन्यथा त्वप्रमार्जयत एव संयम ( ? ) इति । (तं. भा. हरि व सिद्ध. वृ. ε-६) । शुद्ध भूमि के देख लेने पर रजोहरण के द्वारा प्रमार्जन करके झाड़कर बैठने व शयन श्रादि कार्य का करना तथा मार्ग में जाते हुए सचित्त, प्रचित्त व मिश्र पृथिवी काय को धूलि से लिप्त पांवों से युक्त होकर जब शुद्ध भूमि से शुद्ध भूमि पर अथवा अशुद्ध भूमि से शुद्ध भूमि पर जाता है तब वह यदि गृहस्थ आदि नहीं है तो पांवों का प्रमार्जन करने पर संयम का परिपालक होता है, अन्यथा प्रमार्जन न करने पर भी संयम परिपालक होता है । प्रमेय - १. प्रमाणविषयः प्रमेयम् । ( सिद्धिवि. वृ. १ - २३, पृ. ७) । २ प्रमाणेन परिच्छेद्यं प्रमेयं प्रणिगद्यते । ( द्रव्यानु. त. ११ - ३, पृ. १८५) । १ प्रमाण के विषयभूत पदार्थ को प्रमेय कहते हैं । प्रमोक्ष- XXX बंधविओोश्रो पमोक्खो दु । ( धव. पु. ८, पृ. ३ उद्) । वन्ध के वियोग का नाम प्रमोक्ष है। प्रमोदभावना १. मुदिदा जदिगुणचिता X XXI ( भ. प्रा. १६६६ ) । २. वदनप्रमादादिभिरभिव्यज्यमानान्तर्भक्तिरागः प्रमोदः । ( स. सि. ७- ११; त. श्लो. ७–११) । ३. प्रमोदं गुणाधिकेषु । प्रमोदो नाम विनयप्रयोगः । वन्दन - स्तुति-वर्णवाद - वैयावृत्त्यकरणादिभिः क्त्व-ज्ञान- चारित्र तपोधिकेषु साधुषु परात्मोभयकृत सभ्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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