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________________ प्रमाण ७७०, जैन-लक्षणावली प्रमाणपद प्रमाणं तत्तथा मतम् । (षड्द., स. वृ. ५५, पृ. प्रमाणकालो अहोरत्तं ॥ (प्राव. नि. मलय. वृ. २११, उद) । ३५. प्रमाणं सम्यग्ज्ञानम् । (प्रमाल. वृ. ३९५) । ३६. प्रमाणं च स्वपरावभासि ज्ञानम् । १पल्योपम, सागरोपम, उत्सपिणी अवसर्पिणी और (स्या. मं. १७); प्रमाणं तु सम्यगर्थनिर्णयलक्षणं कल्प प्रादि के भेद से प्रमाणकाल बहुत प्रकार का सर्वनयात्मकम् । (स्या. मं. २८)। ३७. प्रकर्षेण है। २ जिसके प्राश्रय से सौ वर्ष और पल्योपम संशय-विपर्यासानध्यवसायव्यवच्छेदेन मिमीते जानाति आदि का परिज्ञान होता है वह प्रमाणस्वरूप काल स्व-परस्वरूपम्, मीयतेऽनेनेति मितिमात्र वा प्रमाण- प्रमाणकाल कहलाता है। मिति व्युत्पत्तेः । (लघीय. अभय. वृ., पृ. ७)। प्रमाणगव्यूति-द्विसहस्रदण्डमपिता एका प्रमाण३८. अर्थविकल्पो ज्ञानं प्रमाणमिति xxxr गब्यूतिः । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३८)। (पंचाध्या. १-५४१); विधिपूर्वः प्रतिषेधः प्रति- दो हजार धनुष प्रमाण मापविशेष को एक प्रमाणषेधपुरस्सरो विधिस्त्वनयोः । मैत्री प्रमाणमिति वा गव्यूति कहते हैं। स्व-पराकारावगाहि यज्ज्ञानम् ॥ (पञ्चाध्या. १, प्रमाणदोष--१. अदिमत्तो पाहारो पमाणदोसो ६६५)। ३६. सकलवस्तुग्राहकं प्रमाणम्, प्रमीयते हवदि एसो। (मला. ६-५७)। २. द्वात्रिंशत्कवलपरिच्छिद्यते येन ज्ञानेन तत्प्रमाणम् । (कातिके. प्रमाणातिरिक्तमाहारयतः प्रमाणदोषः। (प्राचारा. टी. २६१) । ४०. प्रमीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं सू. शी. वृ. २, १, २७३, पृ. ३२१) । ३. अन्नेनार्द्ध येन तत्प्रमाणम् (समय. क. टी. ६)। ४१. सप्त- तृतीयांशं कुक्षेः पानेन पूरयेत् । वायोः सुखप्रचारार्थं भङ्ग्यात्मक वाक्यं प्रमाणं पूर्वबोधकृत् । (नयोप. चतुर्थमवशेषयेत् ।। प्रमाणादतिरिक्तोऽस्मात् प्रमाणा६) ४२. स्व-परव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् । (जैनत. गो भवेद्यतः । ध्यानाध्ययनभंगाति-निद्रालस्यादयों ऽगिनः ॥ (प्राचा. सा. ८, ५५-५६)। ४. कुक्षेरर्ध१ प्रतिषेधरूप से सम्बद्ध (सापेक्ष) विधि को प्रमाण मंशमन्नेन पूरयेत्, तृतीयमंशं कुक्षेः पानेन पूरयेत्, कहा जाता है। स्व और पर के प्रकाशित करने कुक्षेश्चतुर्थमंशं वायोः सुखप्रचारार्थमवशेषयेत् रिक्तं वाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। ३ स्व और पर रक्षेत्, अस्मात् प्रमाणादतिरेकोऽधिकग्रहणं प्रमाणके प्रकाशक निर्बाध ज्ञान को प्रमाण जानना दोषः । (भावप्रा. टी. 8) चाहिये । ६ अात्मा आदि के ज्ञान को-जीव-पुद्ग- १ अत्यधिक प्राहार के ग्रहण करने से प्रमाणसादि के अथवा स्व और अर्थ के ज्ञान को-प्रमाण दोष होता है। २ बत्तीस ग्रास प्रमाण प्राहार से कहा जाता है। अधिक होने पर वह प्रमाणदोष से दूषित होता है। प्रमाणकाल-१. प्रमाणकालो पल्लोवम-सागरो- ३ साधु अपने उदर के अर्ध भाग को अन्न से और चम-उस्सप्पिणी-योसप्पिणी-कप्पादिभेदेन बहुप्पयारो। तृतीय भाग को जल से भरे, शेष चतुर्थ भाग को (घव. पु. ११, पृ.७७)। २. प्रमीयते परिच्छिद्यते वायु के संचार के लिए खाली रखे। यह साधु के येन वर्षशत-पल्योपमादि तत्प्रमाणम्, तदेव कालः आहार का प्रमाण है। इस प्रमाण का उल्लंघन प्रमाणकालः, स च अद्धाकालविशेष एव दिवसादि- करके उससे अधिक पाहार करने पर वह आहार लक्षणो मनुष्यक्षेत्रान्तवर्तीति । उक्तं च-दुविहो सम्बन्धी प्रमाणदोष का भागी होता है। प्रमाणकालो दिवसप्रमाणं च होइ राई य। चउपो- प्रमाणपद -- प्रमाणपदानि शतं सहस्रं द्रोणः रिसियो दिवसो राई चउपोरिसी चेव ॥ (स्थाना. खारी पलं तुला कर्षादीनि । (धव. पु. १, पृ.७७); अभय.व. ४, १, २६४) । ३. प्रमाणकालः अद्धा- सदं सहस्समिच्चादीणि पमाणपदणामाणि। (धव. कालविशेषो दिवसादिलक्षणो वाच्यः । (प्राव. नि. पु. ६, पृ. १३६); अट्ठक्खरणिप्फण्णं पमाणपदं । मलय. व. ६६०); अद्धाकालविशेष एव मनुष्य- (धव. पु. १३, पृ. २६६; जयध. १, पृ.६०)। लोकान्तर्वर्ती विशिष्टव्यवहारहेतुरहर्निशारूपः प्रमा- सौ, हजार, द्रोण, खारी, पल, तुला और कर्ष प्रादि णकालः। तथा च प्राह भाष्यकृत्-प्रद्धाकाल- प्रमाणपद माने जाते हैं। पाठ अक्षरों का एक विसेसो पत्थयमाणं व माणुसे खेत्ते । सो संववहारत्थं प्रमाणपद-लोक का एक चरण-होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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