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________________ क्षेत्र] ३६५, जैन-लक्षणावली [क्षेत्रचरण पवीत का धारी हो; एक वस्त्र, एक लंगोटी, वस्त्र कहा जाता है। ३ द्रव्यों का जहां अवगाह होता की पीछी, कमण्डलु और कांसे या लोहे का भिक्षा- है उसे क्षेत्र कहा जाता है। ६ द्रव्यागम और पात्र रखता हो; तथा एक बार भोजन करता हो भावागम का अाधारभत शरीर क्षेत्र कहलाता है। शिर और दाढ़ी के बालों को कैंची या उस्तरे से ७ दृश्यमान-अदृश्यमान रूपी-प्ररूपी द्रव्यों के बनवाता हो; ऐसे प्रथमोकृष्ट (ग्यारहवीं प्रतिमा- प्राधार का नाम क्षेत्र है। धारी) श्रावककको क्षुल्लक कहते हैं। क्षेत्रकायोत्सर्ग- सावद्यक्षेत्रसेवनादागतदोषध्वंस. क्षेत्र-१. क्षेत्र निवासो वर्तमानकालविषयः । नाय कायोत्सर्ग:. कायोत्सर्गपरिणतसेवितक्षेत्र वा क्षेत्र(स. सि. १-८); क्षेत्रं सस्याधिकरणम् । (स. सि. कायोत्सर्गः। (मला. वृ. ७-१५१) । ७-२६; त. वा. ७, २६, १) । २. विषयवाची सावध क्षेत्र के सेवन से प्राये हुए दोषों को दूर क्षेत्रशब्दः, यथा राजा जनपदक्षेत्रेऽवतिष्ठते, न च करने के लिए जो कायोत्सर्ग किया जाता है उसे कृत्स्नं जनपदं स्पृशति । (त. वा. १,८,१८)। क्षेत्रकायोत्सर्ग कहते हैं। अथवा, कायोत्सर्ग से ३. यत्रावगाहस्तत् क्षेत्रम् । (प्राव. नि. हरि.बु. १३, परिणत जीव के द्वारा सेवित क्षेत्र को क्षेत्रकायोप्र. १९ व २१)। ४. क्षेत्रमवगाहमात्रम् । (अनुयो. सर्ग जानना चाहिए। हरि. व.पृ. ३५)। ५. इह दव्वं चेव णिवासमित्त क्षेत्रकारक-क्षेत्रे भरतादौ यः कारको यस्मिन् पज्जायतो मतं खेत्तं । (धर्मसं. ३१)। ६. क्षियत्य वा क्षेत्रे कारको व्याख्यायते स क्षेत्रकारकः । क्षैषीत क्षेष्यत्यस्मिन् द्रव्यागमो भावागमो वेति त्रि (सूत्रकृ. नि. शी. व. १-४)। विधमपि शरीरं क्षेत्रम्, आधारे प्राधेयोपचाराद्वा।। भरतादिक क्षेत्रविशेष में जो करता हैं उसे, अथवा (धव. पु. ४, पृ. ६); क्षियन्ति निवसन्ति अस्मिन जिस क्षेत्र में कारक की व्याख्या की जाती है उस जीवा इति कर्मणां क्षेत्रत्वसिद्धेः । Xxx उक्तं क्षेत्र को क्षेत्रकारक कहते हैं। च-खेत्तं खलु आगासं Xxx। (घव. पु. ४, क्षेत्रकृतपरत्वापरत्व-क्षेत्रकृते (परत्वापरत्वे) पृ. ७); षडद्रव्याणि क्षियन्ति निवसन्ति यस्मिन एकदिक्कालावस्थितयोविप्रकृष्टः परो भवति सन्नितत्क्षेत्रम्, षड्द्रव्यस्वरूपमित्यर्थः। (धव. पु.६, पृ. २२१); विसिट्ठागासदेसो खेत्तं । (षव. पु. १४, कृष्टोऽपरः । (त. भा. ५-२२, पृ. ३५३)। एक दिशा और एक काल में अवस्थित दो वस्तनों पृ. ३६)। ७. क्षेत्रम् अाकाशं दृश्यमानादृश्यमानरूप्यरूपिद्रव्याधारः । (त. भा. सिद्ध.व.१-२६)। में से दूरवर्ती को क्षेत्रकृत पर और समीपवर्ती को ८. xxxक्षेत्रं त्रिभुवनस्थितिः। (म. पु. १. क्षेत्रकृत अपर कहा जाता है । १२३); क्षेत्रं त्रैलोक्यविन्यासःXxx। (म. पु. क्षेत्रचतुविशति - क्षेत्रचतुर्विंशतिविवक्षया चतु२-३६)। ६. वर्तमाननिवाससामान्य क्षेत्रम् । विशतिः क्षेत्राणि भरतादीनि, क्षेत्रप्रदेशा बा चतु(न्यायकु. ७६, पृ. ८०३)। १०. तत्र क्षेत्र सस्यो. विशतिः क्षेत्रचतविशतिः, चविशतिप्रदेशावगाढं त्पत्तिभूमिः । (ध. बि. मु. वृ. ३-२७; योगशा. वा द्रव्यं क्षेत्रचतुर्विशतिः। (प्राव. भा. मलय. ब. स्वो. विव. ३-६५)। ११. द्रव्यमेव सत प्राकाशं १९२, पृ. ५६०)। निवासमात्रपर्यायतः - निवासमात्र पर्यायमाश्रित्य भरतादि चौबीस क्षेत्रों को, अथवा चौबीस मंत्र. क्षमिति मत सम्मतम् । तदुक्तम्-खेत्तं खलु प्रागा प्रदेशों को क्षेत्र चतुर्विशति कहते हैं। अथवा चौबीस समिति । (धर्मसं. मलय. व. ३१) । १२. क्षेत्र प्रदेशों की अवगाहनायुक्त द्रव्य को भी क्षेत्रचतुर्वि. लोकालोकम् । (गो. जी. जी. प्र. टी. ३६६)। शति कहते हैं। १३. क्षेत्रं निवासः, स तु वर्तमानकालविषयः । (त. क्षेत्रचरण-क्षेत्रचरणं यस्मिन् क्षेत्रे गच्छति वत्ति श्रुत. १-८) । १४. क्षेत्रं धान्योत्पत्तिस्थानं भक्षयति वा, यस्मिन् वा क्षेत्रे चरणं व्यावर्ण्यते । क्षेत्रम । (कातिके. टी. ३४०) । (उत्तरा. चू. १५, पृ. २३६)। १ वर्तमानकालीन निवास का नाम क्षेत्र है। अन्न के जिस क्षेत्र में जाता है या खाता है अथवा जिस प्राधार को उत्पत्तिस्थान को भी क्षेत्र (खेत) क्षेत्र में चरण (चारित्र) का व्याख्यान किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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